Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 844
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ७६६ प्रशस्तपादभाष्यम् प्रत्याधारं विलक्षणोऽयं विलक्षणोऽयमिति प्रत्ययव्यावृत्तिः, देशकालविप्रकर्षे च परमाणौ स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानं च भवति, तेऽन्त्या विशेषाः । यदि पुनरन्त्यविशेषमन्तरेण योगिनां योगजाद धर्मात् प्रत्ययव्यावृत्तिः प्रत्यभिज्ञानं च साम्य के रहते हुए भी 'यह आत्मा उस आत्मा से भिन्न है' इस आकार की व्यावृत्ति-प्रतीति जिस हेतु से होती है वही 'विशेष' है। इसी प्रकार सभी मनों में परस्पर सादृश्य के रहते हुए भी योगियों को जिस कारण से 'यह मन उस मन से भिन्न है। इस आकार की व्यावृत्ति-बुद्धि उत्पन्न होती है वही 'विशेष' है। इसी प्रकार विभिन्न समयों में या विभिन्न देशों में रहनेवाले परमाणुओं में भी 'यह वही है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा योगियों को जिन हेतुओं से होती है, वे अन्त्यों में रहनेवाले विशेष' ही हैं। योग से उत्पन्न केवल विशेष प्रकार के धर्म से ही योगियों की व्यावृत्ति की उक्त प्रतीति न्यायकन्दली ___ अत्र चोदयति-यदि पुनरिति । यथा योगजधर्मसामर्थ्याद् योगिनामतीन्द्रियार्थदर्शनं भवति, तथा विशेषमन्तरेणैव प्रत्ययव्यावृत्तिः प्रत्यभिज्ञानं च भविष्यतीति चोदनार्थः। समाधत्ते-नैवमिति । यथा योगिनामशुक्ले शुक्लप्रत्ययो न भवति, अत्यन्तादृष्टे च प्रत्यभिज्ञानं न स्यात् । यदि स्यात् ? मिथ्याप्रत्ययो भवेत् । __ यदि पुनः' इत्यादि से इसी प्रसङ्ग में पुनः आक्षेप करते हैं । आक्षेप करनेवालों का अभिप्राय है कि जिस प्रकार योग से उत्पन्न विशेष धर्म रूप विशेष सामर्थ्य के कारण योगियों को परमाण्वादि अतीन्द्रिय विषयों का भी प्रत्यक्ष होता है, उसी विशेष सामर्थ्य के द्वारा योगियों को उक्त व्यावृत्तिबुद्धि और उक्त प्रत्यभिज्ञान दोनों ही हो सकते हैं, इसके लिए विशेष पदार्थ की कल्पना अनावश्यक है। 'नैवम्' इत्यादि से इसी का समाधान करते हैं । अर्थात् जिस प्रकार योगियों को भी अशुक्ल द्रव्य में शुक्ल की प्रतीति नहीं होती है, उसी प्रकार पहिले बिना देखी हुई वस्तु की प्रत्यभिज्ञा योगियों को भी नहीं हो सकती। यदि होगी ( योगियों को शुक्ल में अशुक्ल की प्रतीति और अज्ञात वस्तु की प्रत्यभिज्ञा यदि होगी ) तो वह मिथ्या ही होगी। अतः योगियों को कथित परमाण्वादि में उक्त परस्पर यातुत्ति को प्रतीति 'विशेष' पदार्थ को माने बिना केवल योगजनित विशेष धर्म से नही हो सकती। योगज धर्म से योगियों के अतीन्द्रिय अर्थों के ज्ञानों में भी गोगजधर्म के अतिरिक्त विषयादि निमित्तों की अपेक्षा होती है। For Private And Personal

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