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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [विशेषनिरूपण
न्यायकन्दली प्रत्यवायकरत्वं तद्योगात् । तत्सम्बन्धादन्येषामशुचित्वम् । तथेहापि तादात्म्यादत्यन्तव्यावृत्तिस्वभावत्वादन्त्यविशेषेषु स्वत एव स्वरूपादेव प्रत्ययव्यावृत्तिर्न विशेषान्तरसम्भवात्। अतदात्मकेषु तु परमाणुषु सामान्यधर्मकेषु विशेषयोगादेव प्रत्ययव्यावृत्तिर्युक्ता न स्वरूपमात्रादिति ।
नित्यद्रव्येषु सर्वेषु परस्परसधर्मसु ।
प्रत्येकमनुवर्तन्ते विशेषा भेदहेतवः॥ इति भट्टश्रीश्रीधरकृतायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां
विशषपदार्थः समाप्तः ॥
नहीं होती है, क्योंकि प्रदीप में स्वतः प्रकाश होता है । इसी प्रकार गो, अश्व प्रभृति के मांस अपने तो वे स्वतः 'अशुचि' है, किन्तु निषिद्ध मांसों को छूनेवाले पुरुष में प्रत्यवाय की कारणता उन (मांसों) के स्पर्श से आती है। एवं उस पुरुष से सम्बन्ध रखनेवाली वस्तुओं में जो अशुचिता होगी, उसका कारण उन वस्तुओं के साथ उस पुरुष का सम्बन्ध है। इसी प्रकार प्रकृत में भी अत्यन्तव्यावृत्ति-स्वभाव के अन्त्य-विशेषों में व्यावृत्ति प्रत्यय 'स्वतः' अर्थात् उनके अत्यन्तव्यावृत्ति-स्वभाव के कारण ही होता है। इसके लिए दूसरे विशेष के सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं है। अतदात्मक' अर्थात् एक सामान्य धर्मवाले परमाणुओं में जो व्यावृत्तिबुद्धि होगी उसके लिए उनमें विशेष पदार्थ का सम्बन्ध ही कारण है । उसको उत्पत्ति स्वतः नहीं हो सकती।
एक साधारण धर्म से युक्त सभी नित्य द्रव्यों में से प्रत्येक में परस्पर भेद (व्यावृत्ति) के लिए, उनमें से प्रत्येक में अलग विशेष का मानना आवश्यक है, क्योंकि वे ही उनमें व्यावृत्ति-बुद्धि के कारण हैं | भट्ट श्री श्रीधर के द्वारा रचित एवं पदार्थों के सम्यक् ज्ञान में समर्थ न्याय
कन्दली नाम की टीका का विशेषनिरूपण समाप्त हुआ।
१. यहाँ 'न विशेषान्तरसम्भवात्' इसके स्थान में] 'न विशेषान्तरसम्बन्धात्' ऐसा पाठ उचित जान पड़ता है, अतः तदनुसार ही अनुवाद किया गया है।
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