________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
७७६
www.kobatirth.org
न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
विभागान्तत्वादर्शनात्,
पदार्थान्तरं स्वाधारेषु
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
कर्मादिनिमित्तासम्भवात्, कर्तव्ययोरेव भावादिति । स च द्रव्यादिभ्यः द्रव्यत्वादीनां
भाववल्लक्षणभेदात् ।
।
यथा भावस्य
आत्मानुरूपप्रत्यय
कारण नहीं हो सकते । एवं विभाग से इस सम्बन्ध का नाश भी नहीं देखा जाता एवं यह ( समवाय ) अधिकरण एवं आधेय रूप दो वस्तुओं में ही देखा जाता है, ( अतः उन प्रतीतियों की उपपत्ति संयोग से नहीं हो सकती ) ।
यह ( समवाय ) द्रव्यादि पाँचों पदार्थों से ( सर्वथा भिन्न ) स्वतन्त्र पदार्थ ही है, क्योंकि जिस प्रकार सत्ता रूप सामान्य या द्रव्यत्वादि रूप सामान्य स्वसदृश ( यह सद् है, यह द्रव्य है, यह गुण है ) इत्यादि प्रतीतियों के उत्पादक होने के कारण द्रव्यादि अपने आश्रयों से भिन्न हैं, उसी प्रकार
न्यायकन्दली
युत सिद्धत्वादिति । संयोगो हि युतसिद्धानामेव भवति । अयं त्वयुतसिद्वानामिति । तथा संयोगोऽन्यतरकर्मज उभयकर्मजः संयोगजो वा स्यादिति । इह तु अन्यतरकर्मादीनां निमित्तानामभावो भावोत्पादककारणसामर्थ्य भावित्वात् । संयोगस्य विभागान्तत्वं विभागविनाश्यत्वं दृश्यते न समवायस्य । संयोगः स्वतन्त्रयोरपि भवति यथोर्ध्वावस्थितयोरगुल्योः । अयं त्वधिकराधिकर्तव्योरेव भवति, तस्मान्नायं संयोग:, किन्तु तस्मात् पृथगेव ।
एवं स्थिते समवाये तस्य द्रव्यादिभ्यो भेदं प्रतिपादयति-स च द्रव्यादिभ्यः पदार्थान्तरमिति । कुत इत्यत आह- भाववल्लक्षणभेदादिति ।
[ समवायनिरूपण -
For Private And Personal
अधिकरणाधि
के कर्म से होगा, अथवा संयोग से ही होगा । तन्तु एवं पट के इस सम्बन्ध के लिए कथित अन्यतर कर्म प्रभृति कारणों में से किसी की भी अपेक्षा नहीं होती है । यह तो अपने आश्रयीभूत पदार्थों के उत्पादक कारणों की सत्ता से स्थिति को लाभ करता है । संयोग का अन्त अर्थात् विनाश विभाग से देखा जाता है, किन्तु समवाय विनाश का ही नहीं होता, (अतः संयोग से समवाय गतार्थ नहीं हो सकता ) एवं संयोग स्वतन्त्र (आधा राधेयभावानापन्न वस्तुओं में भी होता है, जैसे कि ऊपर उठी हुई दो अङ्गलियों में संयोग होता है । समवाय सम्बन्ध आधार और आधेयभूत दो वस्तुओं में ही होता है । तस्मात् समवाय संयोग नहीं है, उससे अलग ही वस्तु है ।
इस प्रकार संयोग से समवाय की स्वतन्त्र सत्ता के सिद्ध हो जाने पर 'स द्रव्यादिभ्यः पदार्थान्तरम्' इस वाक्य के द्वारा समवाय में द्रव्यादि पदार्थों के भेद का उपपादन करते हैं । समवाय द्रव्यादि-पदार्थों से भिन्न क्यों है ? इस