Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 857
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७८२ ___ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [समवायनिरूपण प्रशस्तपादभाष्यम् सम्बन्ध्यनित्यत्वेऽपि न संयोगवदनित्यत्वं भाववदकारणत्वात् । यथा प्रमाणतः कारणानुपलब्धेर्नित्यो भाव इत्युक्तं तथा समवायोऽपीति । नास्य किञ्चित् कारणं प्रमाणत उप प्रतियोगियों और अनुयोगियों के अनित्य होने पर भी संयोग की तरह समवाय अनित्य नहीं है, क्योंकि सत्ता जाति की तरह उसके भी कारण नहीं दीखते हैं। (विशदार्थ यह है कि ) जिस प्रकार किसी भी प्रमाण से कारणों की उपलब्धि न होने से सत्ता जाति में नित्यत्व का व्यवहार न्यायकन्दली भावस्य नियमो दृष्टः, शक्तिनियमात् । कुण्डमेवाश्रयो दध्येवाश्रयि । एवं समवायैकत्वेपि द्रव्यत्वादीनामाधाराधेयनियमो व्यङ्गयव्यञ्जकशक्तिभेदात् । किमुक्तं स्यात् ? द्रव्यत्वाभिव्यजिका शक्तिर्द्रव्याणामेव, तेन द्रव्येष्वेव द्रव्यत्वं समवैति, नान्यति । एवं गुणकर्मस्वपि व्याख्येयम् ।। किं पुनरयमनित्य आहोस्विन्नित्यः ? इति संशये सत्याह-सम्बन्ध्यनित्यत्वेऽपीति । यथा सम्बन्धिनोरनित्यत्वे संयोगस्यानित्यत्वम्, न तथा समवायिनोरनित्यत्वे समवायस्यानित्यत्वं भाववदकारणत्वादिति । एतद् विवृणोतियथेत्यादिना। का समवाय रूपादि से अन्यत्र न रहे; और कर्मत्व का समवाय उत्क्षेपणादि से भिन्न वस्तुओं में न रहे। इन्हीं प्रश्नों का समाधान 'यथा' इत्यादि से किया गया है। अर्थात् मटका और दही दोनों में संयोग बराबर है, फिर भी मटका ही दही का आश्रय कहलाता है, एवं दही आधेय ही कहलाता है। इस सार्वजनिक प्रतीति से जिस प्रकार उक्त एक ही संयोग से मटके में आश्रयत्व व्यवहार को उत्पन्न करने की एक शक्ति और दही में आधेयत्व व्यवहार की उससे भिन्न शक्ति की कल्पना की जाती है। उसी प्रकार द्रव्यत्वादि सभी जातियों में यद्यपि एक ही समवाय है, फिर भी पृथिव्यादि में ही द्रव्यत्व की अभिव्यक्ति होती है, अन्यत्र नहीं। अतः पृथिव्यादि में ही द्रव्यत्व को अभिव्यक्त करने की शक्ति माननी पड़ती है, एवं पृथिव्यादि में द्रव्यत्व ही अभिव्यक्त होता है, अतः पृथिव्यादि में ही अभिव्यक्त होने की शक्ति को वल्पना व्यत्व में ही करनी पड़ती है। एवं गुणत्व की अभिव्यक्ति रूपादि में ही होती है, अतः गुणत्व को अभिव्यक्त करने की शक्ति रूपादि में ही माननी पड़ती है, अन्यत्र नहीं । एवं रूपादि में ही गुणत्व अभिव्यक्त होता है, अत: रूपादि में अभिव्यक्ति होने की शक्ति की कल्पना गुणत्व में करनी पड़ती है अन्य जातियों में नहीं। उपर्युक्त भाष्य को इस प्रकार से व्याख्या करनी चाहिए। For Private And Personal

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