Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 856
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ७८१ प्रशस्तपादभाष्यम् प्रतिनियमो ज्ञायते । यथा कुण्डदघ्नोः संयोगैकत्वे भवत्याश्रयाश्रयिभावनियमः। तथा द्रव्यत्वादीनामपि समवायैकत्वेऽपि व्यङ्ग्यव्यञ्जकशक्तिभेदादाधाराधेयनियम इति । समवाय सम्बन्ध से अपने द्रव्यादि आश्रयों में ही हैं, गुणादि में नहीं । जिस प्रकार कुण्ड और दधि दोनों में एक ही संयोग के रहते हुए भी आधार कुण्ड ही होता है दधि नहीं, एवं आधेय दधि ही होता है कुण्ड नहीं, उसी प्रकार द्रव्यत्वादि सभी (समवेत) वस्तुओं का समवाय एक होने पर भी कथित संयोग की तरह अभिव्यक्त करनेवाले एवं अभिव्यक्त होनेवाले की विभिन्न शक्ति के कारण प्रत्येक समवेत वस्तुओं का आधार आधेय भाव नियमित होता है। न्यायकन्दली उत्तरमाह-अन्वयव्यतिरेकदर्शनादिति । द्रव्यत्वनिमित्तस्य प्रत्ययस्य द्रव्येध्वन्वयो गुणकर्मभ्यश्च व्यतिरेकः, गुणत्वनिमित्तस्य प्रत्ययस्य गुणेष्वन्वयो द्रव्यकर्मभ्यश्च व्यतिरेकः, तथा कर्मत्वनिमित्तस्य प्रत्ययस्य कर्मस्वन्वयो द्रव्यगुणेभ्यश्च व्यतिरेको दृश्यते, तस्मादन्वयव्यतिरेकदर्शनाद् द्रव्यत्वादीनां नियमो ज्ञायते । अस्य विवरणं सुगमम् । समवायाविशेषे कुत एवायं नियमो द्रव्यत्वस्य पृथिव्यादिष्वेव समवायो गुणत्वस्य रूपादिष्वेव कर्मत्वस्योत्क्षेपणादिष्वेव, नान्यत्र ? इत्यत आह-यथेति । संयोगस्यैकत्वेऽपि कुण्डदघ्नोराश्रयाश्रयिकर्मस्व क्रियाओं में ही रहता है। 'अन्वयव्यतिरेकदर्शनात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी प्रश्न का उत्तर दिया गया है। अभिप्राय यह है कि द्रव्यत्व के द्वारा उत्पन्न (द्रव्यत्व विषयक) प्रत्यय का 'अन्वय' (विशेष्यता सम्बन्ध से ) द्रव्यों में ही देखा जाता है, एवं द्रव्यत्व के उक्त प्रत्यय का 'व्यतिरेक' भी गुणकर्मादि में देखा जाता है। इसी प्रकार गुणत्वजनित ( गुणत्वविषयक ) प्रतीति का अन्वय गुणो में ही देखा जाता है, और द्रव्यकर्मादि में गुणत्वविषयक उक्त प्रतीति का व्य तिरेक भी देखा जाता है। एवं कर्मत्व से होनेवाली ( कर्मत्व विषयक ) प्रतीति का अन्वय कर्मों में ही देखा जाता है, और उक्त प्रतीति का ब्यतिरेक भी द्रव्यगुणादि में देखा जाता है । इन अन्वयों और व्यतिरेकों के दर्शन से समझते हैं कि द्रव्यादि तत्तत् आश्रयों में ही समवाय सम्बन्ध से द्रव्यत्वादि नियमित हैं। ( इहेति समवानिमित्तस्य इत्यादि स्वपदवर्णन रूप भाष्य का ) अभिप्राय समझना सुगम है। दव्यत्वादि सभी जातियों में यदि समवाय एक ही है तो फिर यह नियम किस प्रकार उपपन्न होगा कि व्रव्यत्व का समवाय पृथिव्यादि द्रव्यों में ही रहे, एवं गुणत्व का समवाय रूपादि गुणों में ही रहे, एवं कर्मत्व का समवाय उत्क्षेपणादि कर्मों में ही रहे, पृथिव्यादि से अन्यत्र द्रव्य त्व का समवाय न रहे, एवं गुणत्व For Private And Personal

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