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प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् इति । न, आधाराधेयनियमात् । यद्यप्येकः समवायः सर्वत्र स्वतन्त्रः, तथाप्याधाराधेयनियमोऽस्ति । कथं द्रव्यष्वेव द्रव्यत्वम्, गुणेष्वेव (उ०) समवाय को एक मान लेने पर भी पदार्थों का उक्त सार्य नहीं होगा (क्योंकि एक ही समवाय सम्बन्ध से) कौन किसका आधार है और कौन किसका आधेय है ? ये दोनों नियमित हैं। विशदार्थ यह है कि द्रव्यादि सभी अनुयोगियों में यद्यपि एक ही समवाय स्वतन्त्र रूप से है फिर भी इस सम्बन्ध से आधेय और आधार नियमित हैं। (प्र०) सभी में
न्यायकन्दली
प्रत्ययस्य लक्षणस्य सवत्रावलक्षण्याद् भेदे प्रमाणाभावाच्च सर्वत्रैकः समवाय इति । उपसंहरति-तस्मादिति ।
चोदयदि-यद्येक इति । समवायस्यैकत्वे य एव द्रव्यत्वस्य पृथिव्यादिषु योगः, स एव गुणत्वस्य गुणेषु, कर्मत्वस्य च कर्मसु । तत्र यथा द्रव्यत्वस्य योगः पृथिव्यादिष्वस्तीति तेषां द्रव्यत्वम्, तथा तद्योगस्य गुणादिष्वपि सम्भवात् तेषामपि द्रव्यत्वम्। यथा च गुणत्वस्य योगो रूपादिष्वस्तीति रूपादीनां तथा, तद्योगस्य द्रव्यकर्मणोरपि भावात् तयोरपि गुणत्वं स्यात् । एवं च कर्मस्वपि पदार्थानां सङ्कीर्णता दर्शयितव्या। समाधत्ते-नेति । न च पदार्थानां सङ्कीर्णता, कुतः ? आधाराधेयनियमात् । न समवायसद्धावमात्रेण द्रव्यत्वम्,
सभी अनुयोगियों में रहनेवाला समवाय एक ही है। 'तस्मात्' इत्यादि वाक्य के द्वारा इसी प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं ।
'यद्येकः' इत्यादि वाक्यों के द्वारा एक ही समवाय के मानने पर यह आक्षेप किया गया है कि यदि समवाय एक ही है तो यह मानना पड़ेगा कि पृथिवी प्रभृति द्रव्यों में द्रव्यत्व का जो समवाय है, वही समवाय गुणों में गुणत्व का भी है। एवं कर्मों में कर्मत्व का भी है। ऐसी स्थिति मे जिस प्रकार पृथिव्यादि में द्रव्यत्व के समवाय रूप सम्बन्ध (योग) के कारण : पृथिव्यादि में) द्रव्यत्व की सत्ता रहती है, उसी प्रकार गुणादि में भी द्रव्यत्व का समवाय रूप योग के कारण गुणादि में भी द्रव्यत्व की सत्ता माननी पड़ेगी। एवं जैसे कि रूपादि में गुणत्व के समवाय रूप योग के कारण गुणत्व की सत्ता रहती है उसी प्रकार द्रव्य में और कर्म में भी गुणत्व की सत्ता माननी पड़ेगी, क्योंकि उनमें भी गुणत्व का समवाय है। इसी प्रकार कर्मादि पदार्थों में भी द्रव्यत्व कर्मत्वादि का सार्य दिखलाया जा सकता है । 'न' इत्यादि से इसी आक्षेप का समाधान करते हैं । अर्थात् समवाय को एक मानने पर भी पदार्थों का उक्त सायं दोष नहीं है, क्योंकि ( समवाय एक होने पर भी) उसका आधाराधेयभाव नियमित है।
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