Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 855
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७८० न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् गुणत्वम्, कर्मस्वेव कर्मत्वमिति । एवमादि कस्मात् १ अन्वयव्यतिरेकदर्शनात् । इहेति समवाय निमित्तस्य ज्ञानस्यान्वयदर्शनात् सर्वत्रैकः समवाय इति गम्यते । द्रव्यत्वादिनिमित्तानां व्यतिरेकदर्शनात् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ समवायनिरूपण समवाय के एक होने पर नियम ( क्यों कर है ? ) यतः द्रव्यों में ही द्रव्यत्व है ( गुणादि में नहीं) गुणों में ही गुणत्व हे, एवं कर्मों में ही कर्मत्व : ( प्र ० ) इस प्रकार का अवधारण किस हेतु से सिद्ध होता है ? ( उ०) प्रतीतियों के अन्वय और व्यतिरेक से ही उसकी सिद्धि होती है । (विशदार्थ यह है कि ) द्रव्यादि सभी अनुयोगियों में एक ही समवाय है' इसका हेतु है सभी अनुयोगियों में 'यह यहाँ है' इस एक प्रकार की आकार की प्रतीतियों की सत्ता या अन्वय, इस अन्वय से ही समझते हैं कि समवाय अपने सभी आश्रयों में एक ही है । एवं 'गुणादि में द्रव्यत्व है' इस प्रकार की प्रतीतियों के अभाव रूप व्यतिरेक से भी समझते हैं कि द्रव्यत्वादि न्यायकन्दली समवायश्च द्रव्ये एव न गुणकर्मसु अतो न तेषां व्याख्येयम् । एतत्सङ्ग्रहवाक्यं विवृणोतिस्वतन्त्रः संयोगवत् सम्बन्धान्तरेण न वर्तत For Private And Personal किन्तु द्रव्यसमवायाद् द्रव्यत्वम्, द्रव्यत्वम् । एवं गुणकर्मस्वपि यद्यप्येकः समवाय इत्यादिना । इत्यर्थः । व्यक्तमपरम् । पुनश्चोदयति - एवमादि कस्मादिति । द्रव्येष्वेव द्रव्यत्वं वर्तते, गुणेष्वेव गुणत्वम्, कर्मस्वेव कर्मत्वमित्येवमादि कस्मात् त्वया ज्ञातमित्यर्थः । गुणादि में द्रव्यत्व के समवाय के रहने से ही द्रव्यत्व की सत्ता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि ( द्रव्यत्व की सत्ता का नियामक ) द्रव्यानुयोगिक समवाय है, केवल समवाय नहीं । ( अतः गुणादि में केवल समवाय के रहने पर भी द्रव्यानुयोगिकत्वविशिष्ट समवाय के न रहने के कारण गुणादि में द्रव्यत्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती ) इसी प्रकार द्रव्य में गुणकर्मादि के और कर्म में गुणद्रव्यादि के दिये गये साङ्कर्य दोष का भी परिहार करना चाहिए । ' यद्यप्येकः समवायः' इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा उक्त अर्थ के बोक ( यद्येकः समवाय इत्यादि ) संक्षिप्त वाक्य का हो विवरण दिया गया है । समवाय 'स्वतन्त्र' है अर्थात् संयोग की तरह किसी दूसरे सम्बन्ध के द्वारा अपने आश्रय में नहीं रहता है ( वह अपने स्वरूप से ही द्रव्यादि आश्रयों में रहता है ) । ( उक्त स्वपद वर्णन रूप भाष्य के ) और अंश स्पष्ट हैं । 'एवमादि कस्मात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी प्रसङ्ग में पुनः आक्षेप करते हैं । अर्थात् किस हेतु से तुमने ये सब बातें समझों कि द्रव्यत्व द्रव्यों में ही रहता है, गुणत्व गुणों में ही रहता है, एवं

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