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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
इति चेत् ? बाह्यत्वेनारोपितो विकल्पाकार एकाधीनस्वभावत्वाद् विकल्पे जायमाने जायमान इव, विनश्यति विनश्यन्निव प्रतीयमानः प्रतिविकल्पं भिन्न एवावतिष्ठते । न च भेदानुपातिनि सङ्केत प्रवृत्तिरित्युक्तम् ।
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अथोच्यते - यादृशमेको गोविकल्पे वाह्यात्मतया स्वप्रतिभासमारोपयति गोविकल्पान्तरमपि तादृशमेवारोपयति, विकल्पाश्च प्रत्येकं स्वाकारमात्रग्राहिणो न परस्परारोपितानामाकाराणां भेदग्रहणाय पर्याप्नुवन्ति, तस्योभयग्रहणाधीनत्वात् । तदग्रहणाच्च विकल्पारोपितानामाकाराणामेकत्वमारोप्य विकल्पानामेको विषय इत्युच्यते । तदेव च सामान्यं बहिरारोपितेभ्यो विकल्पाकारेभ्योऽत्यन्तभेदाभावेनाभावरूपं स्वलक्षणज्ञानतदाकारारोपितैश्चतुभिः सहोभिः समस्यार्द्धपञ्चमाकार इत्युच्यमानमारोपितबाह्यत्वं शब्दाभिधेयं शब्द
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का विषय नहीं हो सकता । (प्र०) वह परम्परया बाह्यविषयों के साथ भी है, अतः विकल्प स्वयं अपने में ही बाह्यत्व का आरोप कर अपने में बाह्यत्वाकार के विकल्प को भी उत्पन्न करता है । इसी बाह्यविषयक विकल्प में शब्दों का सङ्केत है । ( उ० ) बाह्यत्व विषयक यह आरोप प्रत्येक बाह्य विषय में अलग अलग ही मानना पड़ेगा। क्योंकि इस बाह्यविषयक विकल्प की उत्पत्ति केवल कथित आन्तर विकल्पमात्र से होती है, अतः इसके उत्पन्न होने पर वह वस्तुविषयक विकल्प उत्पन्न सा और विनष्ट होने
रविष्ट सा दीखता है । इस प्रकार वस्तुविषयक वह विकल्प असाधारण और क्षणिक भी होगा । पहिले ही कह चुके हैं कि सजातीय भिन्न व्यक्तियों में ही शब्द का सङ्केत हो सकता है, असाधारण किसी एक मात्र व्यक्ति में नहीं । ( प्र० ) एक गोविषयक विकल्प बाह्यत्वविषयक अपने जिस आकार को उत्पन्न करता है, गोविषयक दूसरा विकल्प भी उसी तरह के बाह्यत्व विषयक अपने आकार के विकल्प को उत्पन्न करता है । विकल्पों का यह स्वभाव है कि वे केवल अपने आकारों का ही आरोप करें। समान आकारों में जो आरोपित परस्पर भेद हैं, उन भेदों को ग्रहण कराने का सामर्थ्य उनमें नहीं है । क्योंकि भेद को समझने के लिए उसके प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों को समझना आवश्यक है । भेद के इस अज्ञान के कारण ही एक आकार के विकल्प से कल्पित आकारों में एकत्व का आरोप होता है । एकत्व के इसी आरोप के कारण 'इयं गौ: ' ' इस आकार के सभी विकल्पों का विषय एक ही है' इस प्रकार का व्यवहार होता है । इसी को वैशेषिकादि ) 'सामान्य' कहते हैं । किन्तु यह 'सामान्य' अभाव रूप है ( भाव रूप नहीं ) क्योंकि बाह्य वस्तुओं में, एवं आरोपित विकरूपों में जो परस्पर भेद है, उनका अत्यन्ताभाव ही वह सामान्य है । ( १ ) स्वलक्षण ( कम्बुग्रीवादिमत्त्व प्रभृति ), ( २ ) उसका ज्ञान ( ३ ) ज्ञान के आकार, एवं ( ४ ) आकार का बाह्यत्वारोप इन चार सहायकों के साथ मिलकर ( इन चारों से कुछ ही भिन्न होने के कारण ) उसे अर्द्धपञ्चमाकार' कहा जाता है । उसी अर्द्धपश्चमाकार वस्तु में शब्द