Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 838
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७६३ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली तत्र गौरेव वक्तव्यो नना य: प्रतिषिध्यते । गव्यसिद्धे त्वगौर्नास्ति तदभावे तु गौः कुतः ॥ इति __ अथान्यापोहः शब्दार्थोऽनारोपितबाह्यत्वम् ? तत्राप्युच्यते, कोऽयमपोहो नाम ? किमगोरपोहो भावोऽभावो वा ? यदि भावः, स कि गोपिण्डस्वभावोऽथागोपिण्डात्मकः ? गोपिण्डात्मकत्वे तावदस्यासाधारणता, न चासाधारणात्मकेऽथे शब्दप्रवृत्तिरित्युक्तम् । अगोपिण्डात्मकेऽप्ययमेव दोषो दूषणान्तरं चैतदधिकम् । यद् गोशब्दस्य गौरित्ययमर्थो न प्राप्नोति । यदि तु पिण्डव्यतिरिक्तमनेकसाधारणं वस्तुभूतमपोहतत्त्वमिष्यते ? शब्दमात्रविषया विप्रतिपत्तिः । अथापोहोऽन्यव्यावृत्तिरूपत्वादभावस्वभाव इष्यते ? तदास्य प्रत्ययत्वेन ग्रहणं न स्यात्, ज्ञानजनकस्यैव ग्राह्यलक्षणत्वात् । अभावस्य च समस्तार्थक्रियाविरहलक्षण (फलतः) गो को सिद्धि के बिना 'अगो' को सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती। एवं 'अगो' की सिद्धि के बिना ( तद्वयावृत्तिबुद्धि के विषय ) गो की सत्ता ही किस प्रकार सिद्ध की जा सकती है ? (प्र०) अपोह शब्द के द्वारा आरोपित बाह्यत्व से भिन्न किसी ऐसे अर्थ का बोध होता है जिसका बाह्यत्व रूप से आरोप न हो। ( उ०) इस प्रसङ्ग में पूछना है कि 'अगो' का यह 'अपोह' कोन सी वस्तु है ? भाव रूप है ? अथवा अभाव रूप है ? यदि भाव रूप है' तो फिर इस प्रसङ्ग में पूछना है कि (यह भाव रूप अपोह) गो व्यक्तिस्वभाव का है ? अथवा 'अगो' व्यक्तियों के स्वभाव का है ! यदि उसे 'गोव्यक्ति' स्वरूप मानें, तो यह अपोह 'असाधारण' (एक मात्र पुरुषग्राह्य ) होगा। पहिले कह चुके हैं कि असाधारण अर्थ में शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती है। यदि 'अगो' पिण्ड स्वरूप माने तो फिर उक्त असाधारण्य रूप दोष तो है ही, यह दोष और अधिक है कि 'गो' शब्द से 'गो' रूप अर्थ का ग्रहण नहीं होगी । यदि सभी गो पिण्डों में रहने वाला अथ च गोपिण्डों से भिन्न कोई 'भाव' पदार्थ ही 'अपोह' हो तो फिर हम दोनों का विवाद 'सामान्य' शब्द और 'अपोह' शब्द के प्रसङ्ग में ही रह जाएगा। यदि अपोह को अन्यव्यावृत्ति रूप होने के कारण अभाव रूप मानें, तो फिर विज्ञानत्व रूप से उसका ग्रहण न हो सकेगा, क्योंकि विज्ञान वही है जो किसी ज्ञान का जनक हो। किसी भी अर्थक्रिया के सामर्थ्य से शुन्य को ही 'अभाव' कहते हैं। इस प्रकार अभाव रूप अपोह में किसी शब्द की प्रवृत्ति ही नहीं होगी । ( अपोह में शब्दों की प्रवृत्ति मान लेने पर भी) श्रोता को उस शब्द 'सिद्धश्च गौरपोह्यत' इस प्रकार है। किन्तु विषयविवेचन की दृष्टि से 'सिद्धश्चागौरपोह्येत' ऐसा पाठ उचित है। चौखम्भा से मुद्रित श्लोकवार्तिक में ऐसा ही पाठ है भी। तदनुसार ही अनुवाद किया गया है। For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869