Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 841
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७६६ न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् विनाशारम्भरहितेषु नित्यद्रव्येष्वण्वाकाशकाल दगात्ममनस्सु प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्तमाना अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतवः । यथास्मदादीनां समझने के कारण इसे 'विशेष' कहते हैं । सभी प्रकार के परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन ये सभी द्रव्य यतः उत्पत्ति और विनाश से रहित हैं, अतः इन सबों में 'विशेष' की सत्ता माननी पड़ती है । क्योंकि इनमें से प्रत्येक को अपने सजातीयों और विजातीयों से भिन्न रूप में न्यायकन्दली विशेषव्याख्यानार्थमाह - अन्तेषु भवा अन्त्या इति । उत्पादविनाशयोरन्तेऽवस्थितत्वादन्तशब्दवाच्यानि नित्यद्रव्याणि तेषु भवाः स्थिता इत्यर्थः । स्वाश्रयस्य सर्वतो विशेषकत्वाद् भेदकत्वाद् विशेषाः । एतद् विवृणोति - विनाशारम्भरहितेष्वित्यादिना । विनाशारम्भर हितेष्वित्यन्त्यपदस्य विवरणम् । अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतव इति च स्वाश्रयस्य विशेषकत्वादित्यस्य विवरणम् । प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्तमाना इति । द्रव्यं द्रव्यं प्रत्येकैको विशेषो वर्तत इत्यर्थः । एकेनैव विशेषेण स्वाश्रयस्य व्यावृत्तिसिद्धेरनेकविशेषकल्पना वैयर्थ्यात् । यथा चेदं विशेषाणां लक्षणं भवति तथा पूर्वं व्याख्यातम् । ही रहते हैं । सिद्धे विशेषसद्भावे तेषां लक्षणाभिधानं युक्तं नासिद्धे, इत्याशङ्कय विशेषाणां सद्भावं प्रतिपादयितुं ग्रन्थमवतारयति - यथेत्यादिना । यथा है । ( 'अन्त्येषु भवा अन्त्याः' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न 'अन्त्य' शब्द में जो ) 'अन्त' शब्द है, उससे नित्यद्रव्य अभिप्रेत हैं, क्योंकि वे उत्पत्ति और विनाश के अन्त में रहते हैं । 'तेषु भवा अन्त्याः' अर्थात् विशेष नित्य द्रव्यों में इसका 'विशेष' नाम इस अभिप्राय से रक्खा गया है कि यह अपने आश्रय को और सभी वस्तुओं से अलग करता है । 'विशेष' पद का यही विवरण 'विनाशारम्भ रहितेषु' इत्यादि से किया गया है । उक्त वाक्य का 'विनाशारम्भ रहितेषु' यह अंश 'अन्त्य' पद का विवरण है, और 'अत्यन्तव्यावृत्तिहेतवः' यह अंश 'स्वाश्रयस्य विशेषकत्वात् इस वाक्य का विवरण है । 'प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्त्तमानाः' अर्थात् प्रत्येक ( नित्य ) द्रव्य में एक एक विशेष है । एक नित्य द्रव्य में एक ही विशेष पदार्थ की कल्पना करते हैं, क्योंकि एक ही विशेष को स्वीकार कर लेने से हो उसके आश्रय द्रव्य में और सभी पदार्थों को व्यावृत्ति बुद्धि उत्पन्न हो जाएगी । अतः एक द्रव्य में अनेक विशेषों की कल्पना व्यर्थ है । ' अन्त्यद्रव्यवृत्तयो व्यावर्त्तका विशेषाः ' विशेष का यह लक्षण जिस प्रकार उपपन्न होता है इसका विवरण पहिले ही दे चुका हूँ । पहिले विशेष पदार्थ को स्वतन्त्र सत्ता में प्रमाण दिखला कर बाद में उसका लक्षण कहना उचित है, उससे पहिले नहीं । अतः विशेष पदार्थ की सत्ता में प्रमाण दिखलाने के लिए ही 'यथा' इत्यादि सन्दर्भ का अवतार हुआ है । अभिप्राय यह है कि Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal [ विशेषनिरूपण

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