Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 840
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७६५ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् अथ विशेषपदार्थनिरूपणम् प्रशस्तपादभाष्यम् अन्तेषु भवा अन्त्याः , स्वाश्रयविशेषकत्वाद् विशेषाः । 'अन्त' में अर्थात् नित्य द्रव्यों में रहने के कारण इसको 'अन्त्य' कहते हैं। एवं अपने आश्रय को अपने से भिन्न पदार्थों से अलग रूप में न्यायकन्दली भृन्मात्रानुवर्तिनी प्रत्यक्षपूर्विका हिताहितप्राप्तिपरिहारार्था लोकयात्रा । सैव च भिन्नासु व्यक्तिषु सामान्यमेकं व्यवस्थापयति । यद्विषयाः शब्दात् प्रत्यया: प्रवृत्तयश्चोपलभ्यन्ते, तज्जातीयत्वेन तदर्थक्रियोपयोग्यतां विनिश्चित्यापूर्वावगतेऽप्यर्थे लोकः प्रवर्तत इति । भिन्नेष्वनुगताकारा बुद्धिर्जातनिबन्धना । अस्या अभावे नैवेयं लोकयात्रा प्रवर्तते ॥ इति । इति भट्टश्रीश्रीधरविरचितायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां सामान्यपदार्थः समाप्तः ।। अप्रत्यक्ष व्यक्तियों में भी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है। किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा अज्ञात अर्थ का शब्द से व्यवहार होता है, एवं सभी प्राणियों में प्रत्यक्ष से होनेवाली हित की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति और अहित की निवृत्ति से ही 'लोकयात्रा' का निर्वाह देखा जाता है। यह 'लोकयात्रा' ही भिन्न व्यक्तियों में एक जाति को सिद्ध करती है। (लोकयात्रा के निर्वाह में सामान्य की उपयोगिता इस प्रकार है कि ) जिस शब्द से जिस विषय को समझकर प्रवृत्ति होती है, उस जाति के और व्यक्तियों में भी केवल उस जाति के होने के नाते ही उस कार्य की क्षमता का बोध हो जाता है। इससे प्रथमतः ज्ञात उस जाति के दूसरे विषयों में भी लोक प्रवृत्त होता है। तस्मात भिन्न व्यक्तियों में एक आकार की प्रतीति जाति से ही होती है। अतः इसके न मानने पर 'लोकयात्रा' का निर्वाह न हो सकेगा। भट्ट श्री श्रीधर के द्वारा रचित पदार्थों के बोध को उत्पन्न करनेवाली न्यायकन्दली टीका का सामान्य-निरूपण समाप्त हुआ। न्यायकन्दली चतुर्युगचतुर्विद्याचतुर्वर्णविधायिने । नमः पञ्चत्वशून्याय चतुर्मुखभृते सदा ॥ सत्यादि चारों युगों, आन्वीक्षिकी प्रभृति चारों विद्याओं, ब्राह्मणादि चारो वर्णों की रचना करनेवाले और स्वयं चार मुखवाले ब्रह्मा जी को प्रणाम करता हूँ, जो इस प्रकार चतुष्ट्व संख्याओं से युक्त होने के कारण पञ्चत्व' शून्य हैं ( अर्थात् मृत्यु से रहित हैं )। _ 'अन्तेषु भवा अन्त्याः' यह वाक्य विशेष पदार्थ की व्याख्या के लिए लिखा गया For Private And Personal

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