Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 812
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् वा तदा जीवनसहाययोर्वैकल्यात् तत्पूर्वक प्रयत्नवैकल्यात् प्राणनिरोधे सत्यन्याभ्यां लब्धवृत्तिभ्यां धर्माधर्माभ्यामात्ममनःसंयोगसहायाभ्यां मृतशरीराद् विभागकारणमपसर्पणकर्मोत्पद्यते । मृत ) शरीर से मन का विभाग उत्पन्न होता है। इस विभाग के उत्पादन में उन्हें आत्मा और मन के संयाग के साहाय्य की भी अपेक्षा होती है। इस विभाग से ही मन में 'अपसर्पण' नाम की क्रिया उत्पन्न होती है। उस न्यायकन्दली तयोरुपभोगात् प्रक्षया विनाशोऽन्योन्याभिभवो वा परस्परप्रतिबन्धात् स्वकार्याकरणं वा, ततो जीवनसहाययोः धर्माधर्मयोर्वैकल्येऽभावे सति तत्पूर्वकप्रयत्नवैकल्याद् जीवनपूर्वकस्य प्रयत्नस्य वैकल्यादभावात् प्राणवायोनिरोधे सति पतितेऽस्मिन् शरीरे याभ्यां धर्माधर्माभ्यां देहान्तरे फलं भोजयितव्यं तो लब्धवृत्तिको भूतावैहिकशरीरोपभोग्यधर्माधर्मप्रतिबद्धत्वाद् देहान्तरभोग्याभ्यां धर्माधर्माभ्यां कार्य न कृतम् । यदा त्वैहिकशरीरोपभोग्यौ धर्माधमौ प्रक्षीणौ तदा देहान्तरोपभोग्यधर्माधर्मयोवृत्तिलाभः प्रतिबन्धाभावाज्जातः । ताभ्यां लब्धवृत्तिभ्यामैहिकदेहोपभोग्यात् कर्मणोऽन्याभ्यामात्ममन:संयोगसहायाभ्यां मृत शरीरान्मनसो विभागकारणमपसर्पणकर्मोत्पद्यते। का संयोग ही 'जीवन' है। इस जीवन से जो कार्य उत्पन्न होंगे, धर्म और अधर्म उनके सहकारिकारण हैं। जिस समय उपभोग से उनका 'प्रक्षय' अर्थात् विनाश हो जाएगा या 'अन्योन्याभिभव' अर्थात् परस्पर एक दूसरे के प्रतिरोध के कारण दोनों अपने काम में अक्षय हो जाते हैं, उस समय जीवन ( उक्त आत्ममनःसंयोग) के सहायक धर्म और अधर्म के 'वैकल्य' से अर्थात् अभाव के कारण 'तत्पूर्वकप्रयत्नवैकल्यात्' अर्थात् जीवन से उत्पन्न होने वाले प्रयत्न के अभाव से प्राणवायु का निरोध हो जाता है। जिससे इस शरीर का पतन हो जाता है। इस शरीर के पतन के बाद जिन धर्मों और अधर्मों से दूसरे शरीर के द्वारा उपभोग करना है, उन धर्मों और अधर्मों में कार्य करने की क्षमता आ जाती है। वर्तमान शरीर के द्वारा उपभोग के कारणीभूत धर्म और अधर्म से प्रतिरुद्ध होने के कारण हो वे धर्म और अधर्म अपने उन उपभोग रूप कार्यों से विरत रहते हैं, जिनका सम्पादन दूसरे शरीर से होना है। जिस समय ऐहिक शरीर के धर्म और अधर्म नष्ट हो जाते हैं. या असमर्थ हो जाते हैं, उस समय दूसरे शरीर के द्वारा उपभुक्त होनेवाले धर्म और अधर्म अपना कार्य प्रारम्भ कर देते हैं, क्योंकि उनका कोई प्रतिबन्धक नहीं रह जाता । ऐहिक शरीर से उपभोग्य इन धर्म और अधर्म से भिन्न, एवं जीवन रूप आत्ममन:संयोग के सहायक अथ प कार्यक्षम इन दूसरे धर्म और अधर्म से मन में अपसर्पण क्रिया उत्पन्न होती है, जिससे मृत शरीर से मन का विभाग उत्पन्न होता है । For Private And Personal

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