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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
७४६
न्यायकन्दली
द्वे वस्तुनी प्रतिभासयति । नापि तयोविशेषणविशेष्यभावः, गोत्वा' गोत्ववा. नित्येवमनुदयात् । किं तु तादात्म्यग्राहिणी प्रतितिरियम्, गौरयमित्येका. त्मतापरामर्शात्, उभयोरन्योन्यप्रहाणेन स्वरूपान्तराभावाच्च । अनुवृत्तता हि गोत्वस्येव सामान्यान्तरस्यापि स्वरूपम्, व्यावृत्ततापि गोव्यक्तेर्व्यक्त्यन्तराणामपि स्वभावः । सामान्यान्तरव्यावृत्तं तु गोत्वस्य स्वरूपम्, व्यक्त्यन्तरव्यावृत्तिश्च गोव्यक्तेः स्वभावः परस्परात्मतामन्तरेणान्यो न शक्यते निर्देष्टुम् ।
जिस प्रकार 'दण्डी पुरुषः' इत्यादि विशिष्टबुद्धियों में दण्ड और पुरुष दोनों में से एक सामान्यविधया और दूसरा व्यक्तिविधया स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता है, उस प्रकार से 'अयं गौः, अयं गौः' इत्यादि आकार के अनुवृत्तिप्रत्ययों में गोत्वादि सामान्य रूप से और गोप्रभृति विशेष (व्यक्ति) रूप से प्रतिभासित नहीं होते । एवं उक्त प्रतीतियों में गो विशेष्य रूप से और गोत्व विशेषण रूप से भी प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि ऐसी बात होती तो प्रतीति का अभिलाप "गौः गोत्ववान्' इस आकार का होता ('अयं गौः' इस आकार का नहीं )। तस्मात् 'अयं गौः' यह प्रतीति तादात्म्यविषयक है। क्योंकि 'अयम्' पदार्थ और 'गौः' पदार्थ दोनों के एकरूपत्व का ही उससे परामर्श होता है। दूसरी युक्ति यह भी है कि गो को छोड़कर गोत्व का कोई अपना स्वरूप नहीं है, एवं गोत्व को छोड़कर गो का भी कोई स्वरूप नहीं है। क्योंकि केवल अनुवृत्तत्व जैसे गोत्व जाति में है, वैसे ही अश्वत्वादि जातियों में भी है। एवं केवल व्यावृत्तत्व ( अर्थात् स्वभिन्नभिन्नत्व) जैसे गो व्यक्ति में है, वैसे ही अश्वादि व्यक्तियों में भी है, अतः गोत्व का ऐसा ही स्वरूप मानना पड़ेगा जो दूसरे सामान्यों में न रहे । एवं गोव्यक्ति
१. मुद्रित न्यायकन्दली में 'गोत्वा गोत्ववान्' ऐसा पाठ है। यह तो स्पष्ट है कि इसमें एक 'ए' का चिह्न छूट गया है। अतः ‘गोत्वो गोत्ववान्' ऐसा पाठ संशोधक को अभिप्रेत मालूम होता है । किन्तु सो भी ठीक नहीं जंचता, क्योंकि प्रथम विकल्प में कहा गया है कि 'अयं गौः' इस आकार की प्रतीति में गो का व्यक्तिविधया और गोत्व का जातिविधया भान नहीं होता है। इसके बाद 'नापि तः' इत्यादि से जो विकल्प किया गया है, उसमें द्विवचनान्त 'तयोः' पद से गो और गोत्व इन्हीं दोनों का ग्रहण समुचित जान पड़ता है। किन्तु तादात्म्यग्राहिणी' इत्यादि से इस विकल्प का खण्डन किया गया है कि 'अयं गौः' यह प्रतीति 'इदम्' पदार्थ में गो के तादात्म्य विषयक ही है। इससे भी इसी प्रतिषेध का आक्षेप होता है कि 'अयं गौः' यह प्रतीति गोविशेष्यक एवं गोत्वविशेषणक नहीं है। यदि ऐसी बात है तो फिर 'गौः गोत्ववान्' ऐसा ही पाठ उचित है। अतः तदनुसार ही अनुवाद किया गया है।
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