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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
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प्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्यादिषु वृत्तिनियमात् प्रत्ययभेदाच्च परस्परतश्चान्यत्वम् । प्रत्येकं स्वाश्रयेषु लक्षणाविशेषाद् विशेषलक्षणाभावाच्चैकत्वम् । यद्यप्यपरिच्छिनदेशानि सामान्यानि भवन्ति, तथाप्युपलक्षणनियमात
द्रव्यत्वादि कोई भी सामान्य द्रव्यादि कुछ आश्रयों में ही नियत रूप से रहते हैं, एवं भिन्न रूप से प्रतीत भी होते हैं, अतः ( द्रव्यत्वगुणत्वादि ) सामान्य परस्पर विभिन्न हैं । एवं प्रत्येक सामान्य अपने आश्रयों में समान रूप से प्रतीत होता है, एवं उसको अनेक मानने में कोई प्रमाण भी नहीं है, इससे सिद्ध होता है कि द्रव्यादि नियत आश्रयों में रहनेवाले द्रव्यत्वादि सामान्यों में से प्रत्येक सामान्य एक एक ही है । यद्यपि सामान्य अनन्त (प्रकार के ) आश्रयों में रहता है, फिर भी उसकी अभिव्यक्ति के कारणों की एक रूपता, और उसके आश्रयों की
न्यायकन्दली दयः प्रत्येक द्रव्यादिष्वेव नियताः। प्रत्ययभेदश्चैतेषु दृश्यते, तस्माद् द्रव्यादिषु वृत्तिनियमात् प्रत्ययभेदाच्च द्रव्यत्वादीनां परस्परतो भेदः ।
अभेदात्मकं सामान्यमिति पूर्व प्रतिज्ञामात्रेणोक्तं तदिदानी प्रमाणसिद्ध तस्य करोति-प्रत्येक स्वाश्रयेष्विति । लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणमनुगताकारज्ञानम् । प्रत्येकं प्रतिपिण्डमविशेषाद् वैलक्षण्याभावाद् विशेषे भेदे लक्षणस्य प्रमाणस्याभावाच्च सामान्यस्य स्वाश्रयेष्वेकत्वमभिन्न स्वभावमित्यर्थः । स्वविषये सर्वत्र सामान्य समवैति नान्यत्रेति यत् पूर्वमुक्तं तस्य कारणमाह-यद्यपीति । यद्यपि सामान्यानि यत्र तत्रोपजायमानेन पिण्डेन सम्बन्धादपरिच्छिन्नदेशान्यनियतदेशानि, में से प्रत्येक सामान्य यतः द्रव्यादि व्यक्तियों में ही नियमित रूप से रहता है एवं इनमें इन की प्रतीतियां भी विभिन्न आकार की होती हैं। तस्मात् द्रव्यादि में ही नियमित रूप से रहने के कारण और उक्त प्रती त भेद के कारण समझते हैं कि द्रव्यत्वादि जातियाँ परस्पर भिन्न हैं।
'प्रत्येकं स्वाश्रयेषु' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा पहिले केवल प्रतिज्ञावाक्य के द्वारा सिद्धवत् कही हुई सामान्य को अभिन्नता को प्रमाण के द्वारा प्रत्येकं स्वाश्रयेषु' इत्यादि वाक्य से सिद्ध करते हैं। लक्ष्यते अनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत में 'लक्षण' शब्द का अर्थ है अनुगत एक आकार का ज्ञान । उसका 'प्रत्येक में' अर्थात् गोप्रभृति प्रत्येक व्यक्ति में 'अविशेष से' अर्थात् विभिन्नता के न रहने से, एवं 'विशेष में' अर्थात् द्रव्यत्वादि प्रत्येक जाति के भेद में अर्थात् अनेकत्व में 'लक्षण' अर्थात् किसी प्रमाण के न रहने से समझते हैं कि एक सामान्य अपने सभी आश्रयों में एक ही है, अर्थात् अभिन्नस्वभाव का है। पहिले जो यह कहा गया है कि 'सामान्य अपने विषयों अर्थात् आश्रयों में ही समवाय सम्बन्ध से रहता है, अन्यत्र नहीं' उसी के हेतु का प्रतिपादन 'यपि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा किया गया है ।
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