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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् अथ सामान्यपदार्थनिरूपणम्
प्रशस्तपादभाष्यम् सामान्यं द्विविधम-परमपरं च । स्वविषयसर्वगत
'पर' और अपर' भेद से सामान्य दो प्रकार का है। वह अपने विषयों (आश्रयों) में रहता है। वह अभिन्नस्वभाव का है। एक, दो या बहुत सी वस्तुओं में एक आकार की बुद्धि का कारण है अपने एक
न्यायकन्दली च प्रक्षोभणं चलनम्, परीक्षाकालेऽभिषिक्तानां मणोनां तस्करं प्रति गमनम्, अयसोऽयस्कान्ताभिसर्पणं च सर्वमेतददृष्टकारितमिति ।
हिताहितफलोपायप्राप्तित्यागनिबन्धनम् ।
कर्मेति परमं तत्त्वं यत्नतः क्रियतां हृदि । इति भट्टश्रीश्रीधरकृतायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां कर्मपदार्थः समाप्तः।
मणियों का चोर की ओर जाना, एवं 'अयसोऽयस्कान्ताभिसर्पणम्' अर्थात् साधारण लोह का चुम्बक की ओर जाना ये भी सभी क्रियायें अदृष्ट से होती हैं।। - सुख और उसके उपाय की प्राप्ति, एवं दुःख और उसके उपाय का परिहार, ये दोनों ही क्रिया से होते हैं, अतः इस क्रियातत्त्व को यत्न से हृदय में धारण करना चाहिए। भट्ट श्री श्रीधर की रची हुई पदार्थों को समझानेवाली न्यायकन्दली टीका का
- कर्मनिरूपण समाप्त हुआ।
न्यायकन्दली जयन्ति जगदुत्पत्तिस्थितिसंहृतिहेतवः।
विश्वस्य परमात्मानो ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः॥ सामान्यं व्याचष्टे-द्विविधं सामान्यं परमपरं चेति । कृतव्याख्यानमेतदुद्देशावसरे । सर्वसर्वगतं सामान्यमिति केचित् । तनिषेधार्थमाहस्वविषयसर्वगतमिति । यत सामान्यं यत्र पिण्ड प्रतीयते स तस्य स्वो विषयः,
जगत् की उत्पत्ति के हेतु ब्रह्मा, एवं स्थिति के हेतु विष्णु और संहार के हेतु महेश्वर, विश्व के परमात्मस्वरूप इन तीनों की जय हो।
द्विविधं सामान्यं परमपरञ्च' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा सामान्य का निरूपण करते हैं। इस पङ्क्ति को व्याख्या पदार्थोद्देश प्रकरण में (पृ० २६ पं० ११) कर चुके हैं। किसी सम्प्रदाय का मत है कि सभी सामान्य सभी वस्तुओं में रहते हैं। इस मत के खण्डन के लिए ही 'स्वविषयसर्वगतम्' यह वाक्य लिखा गया है। जिस सामान्य की
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