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७१८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभष्यम्
[कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् विनश्यनवस्थित इति । अतः संस्कारवति पुनः संस्कारारम्भो नास्त्यतो यस्मिन् काले संस्कारापेक्षादभिधातादप्रत्ययं मुसले उत्पतनकर्म, तस्मिन्नेव काले तमेव संस्कारमपेक्षमाणान्मुसलहस्तसंयोगादप्रत्ययं हस्तेऽप्युत्पतनकर्मेति । ।
पाणिमन्बु गमनविधिः, कथम् ? यदा तोमरं हस्तेन गृहीत्वोक्षेतुमिच् पद्यते, तदनन्तरं प्रयत्नः, तमपेक्षमाणाद् यथोक्तात् तब तक विद्यमान रहता है। अतः एक संस्कार से युक्त वस्तु में पुन: दूसरे संस्कार की उत्पत्ति की सम्भावना न रहने पर भी जिस समय संस्कार और अभिघात ( संयोग ) इन दोनों से बिना प्रयत्न के मूसल में उत्पतन ( उत्क्षेपण) क्रिया उत्पन्न होती है, उसी समय उसी संस्कार और मूसल एवं हाथ के संयोग इन दोनों से अप्रत्यय (प्रयत्नाजन्य ) उत्पतन ( उत्क्षेपण) क्रिया उत्पन्न होती है।
(प्र० ) हाथ से फेंकी हुई वस्तुओं में गमन क्रिया किस प्रकार उत्पन्न होती है ? ( उ०) जिस समय तोमर को हाथ में लेकर उसे उछालने की इच्छा ( पुरुष को ) होती है, उसके बाद प्रयत्न उत्पन्न होता है। आत्मा और हाथ के संयोग एवं हाथ और तोमर के संयोग इन दोनों संयोगों के द्वारा उक्त प्रयत्न के साहाय्य से तोमर और हाथ में एक ही समय दो आकर्षणात्मक
न्यायकन्दली
न विनश्यति । अतः संस्कारवति संस्कारान्तरारम्भो नास्ति, यतः प्राक्तनापक्षेपणसंस्कारो न विनष्टः, अतः प्राक्तनसंस्कारवति मुसले संस्कारान्तरारम्भो नास्तीति प्रतीयते। यस्मिन् काले संस्कारापेक्षादभिघातादप्रत्ययं मुसले उत्पतनकर्म, तस्मिन्नेव काले तमेव संस्कारमपेक्षमाणाद्धस्तमुसलसंयोगादप्रत्ययं
यह है कि यह वेगाख्य संस्कार (अन्य वेगाख्य संस्कारों के कारणों से ) विशेष प्रकार के कारणों से उत्पन्न होता है। अतः अत्यन्त बलवान होने के कारण ( अन्य संस्कारों के विनाशक) स्पर्श से युक्त द्रव्य के संयोग से भी वह विनष्ट नहीं होता। यही कारण है कि उससे दूसरे संस्कार की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि पहिले अपक्षेपण क्रियाजनित संस्कार का विनाश नहीं हुआ है। इससे यह समझते हैं कि पहिले के संस्कार से युक्त मूसल में दूसरे संस्कार की उत्पति नहीं होती है। “यस्मिन् काले संस्कारापेक्षादभिघातादप्रत्ययं मुसले उत्पतनकर्म, तस्मिन्नेव काले तमेव संस्कारमपेक्षमाणाद्धस्तमुसलसंयोगादप्रत्ययं हस्तेऽप्युत्पतनकर्मेति" इस पक्ष में हाथ और मूसल दोनों
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