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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
७३३
प्रशस्तपादभाष्यम् रादनियतदिग्देशसंयोगविभागनिमित्तं कर्म तद् भ्रमणमिति । एवमादयो गमनविशेषाः।
प्राणाख्ये तु वायौ कम आत्मवायुसंयोगादिच्छाद्वेषपूर्वकप्रयत्नापेक्षाजाग्रत इच्छानुविधानदर्शनात् , सुप्तस्य तु जीवनपूर्वकप्रयत्नापेक्षात् । अवयवों का अनियत दिशाओं के साथ संयोग और विभागों के जनक क्रियाओं की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार की क्रियाओं को 'भ्रमण' कहते हैं। ये सभी (स्यन्दन, भ्रमणादि) कर्म विशेष प्रकार के गमन रूप ही हैं।
__ जागते हुए व्यक्ति के प्राण नाम के वायु में आत्मा और वायु के संयोग से क्रिया उत्पन्न होती है, जिसमें ( उक्त संयोग को ) इच्छा या द्वेष से उत्पन्न होनेवाले प्रयत्न के साहाय्य की भी आवश्यकता होती है, क्योंकि जगे हुए व्यक्ति की सभी क्रियाओं में इच्छा ( या द्वेष ) का अन्वय और व्यतिरेक देखा जाता है । सोये हुए व्यक्ति के प्राणवायु की क्रिया ( यद्यपि आत्मा और वायु के संयोग से ही होती है, किन्तु उसे ) जीवनयोनियत्न का ही साहाय्य अपेक्षित होता है ( इच्छा पूर्वक या द्वेष पूर्वक प्रयत्न का नहीं)।
न्यायकन्दली नोदनादभिघातात् कर्मजात् संस्काराच्च भवन्ति । एवं वेगाद् दण्डसंयुक्ते चक्रावयवे आद्यं कर्म दण्डसंयोगात्, अवयवान्तरेषु च संयुक्तसंयोगात्, दण्डसंयुक्तस्यावयवस्योत्तरोत्तरकर्माणि संस्कारान्नोदनाच्च । अपरेषां संस्कारात्, संयुक्तसंयोगाच्च । दण्डविगमे तु चक्रे तदवयवेषु च संस्कारादेव केवलात् । उपसंहरति-एवमादयो गमनविशेषा इति ।
होती है वही 'भ्रमण' हैं । पहिले चक्र रूप अवयवी में दण्ड के संयोग से क्रिया की उत्पत्ति होती है । आगे आगे की क्रियायें कर्मजनित अभिघात या नोदन से और संस्कार से उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार वेग के कारण दण्ड से संयुक्त चक्र के अवयवों में पहिली क्रिया की उत्पत्ति दण्ड के संयोग से होती है। अन्य अवयवों में पहिलो क्रिया संयुक्तसंयोग से होती है। दण्ड के साथ संयुक्त चक्र के अवयव को आगे आगे की क्रियायें संस्कार
और नोदन से होती हैं । इससे भिन्न अवयवों को पहिली क्रिया संस्कार से और संयुक्तसंयोग से होती है। दण्ड के हटा लेने पर चक्र में और उसके अवयवों में जो क्रियायें होती रहती हैं, उनका कारण केवल संस्कार ही है। 'एवमादयो गमनविशेषाः' इस सन्दर्भ से गमन रूप क्रिया के प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं ।
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