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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम्
चक्रादिव्ववयवानां
संस्कारात् कर्म इष्वादिपूक्तम् । तथा पार्श्वतः प्रतिनियत दिग्देश संयोगविभागोत्पत्तौ यदवयविनः संस्कातीर प्रभृति में संस्कार के द्वारा कर्म की उत्पत्ति कह चुक हैं । उसी प्रकार चक्र (मिट्टी के बर्त्तन बनाने की चक्की) प्रभृति में उनके
न्यायकन्दली
वयविनि द्रवत्वमुत्पद्यते । तत्र च कारणानां संयुक्तानां प्रबन्धेन गमने यदवयविनि कर्मोत्पद्यते द्रवत्वात् तत् स्यन्दनम् । तत्र तस्थिन् द्रवत्वे उत्पन्ने सति वारणानामवयवानां प्रबन्धन गमने पङ्क्तीभावेनाभिन्नदेशतया गमने यदवयविनि द्रवत्वात् कर्मोत्पद्यते तत् स्यन्दनाख्यम् ।
संस्कारात् कर्मेष्वादिषूक्तम् तथा चक्रादिषु । तथाशब्दो यथाशब्दमपेक्षते, यत्तदोनित्यसम्बन्धात् । यथा इष्वादिषु संस्कारात् कर्म कथितम्, तथा चक्रादिष्वपि भवतीत्यर्थः । एतदेव दर्शयति- अवयवानां पार्श्वतः प्रतिनियतदिग्देश संयोगविभागोत्पत्तौ यदवयविनः संस्कारादनियतदिग्देशसंयोगविभागनिमित्तं कर्म तद् भ्रमणम् । पाश्र्वतः प्रतिनियता ये दिग्देशास्तेः सहावयवानां संयोगविभागयोरुत्पत्तौ सत्यां यदवयविनः संस्कारादनियतदिग्देशैः सर्वतो दिक्कविभागसंयोगनिमित्तं कर्म जायते तद् भ्रमणम् । प्रथमं चक्रावयविनि दण्डसंयोगात् कर्मोत्पद्यते 1 उत्तरोत्तराणि कर्माणि
द्रव्य में द्रवत्व की उत्पत्ति होती है । 'तत्र च कारणानां प्रबन्धेन गमने यदवयविनि कर्मोपद्यते द्रवत्वात् तत् स्यन्दनम्' वहाँ बड़े द्रव्य में द्रवत्व के उत्पन्न होने पर 'कारणों का' अर्थात् उसके अवयवों का 'प्रबन्ध से' अर्थात् पङ्क्तिबद्ध होकर एक देश में गमन होने पर द्रवत्व से अवयवी में जो कर्म उत्पन्न होता है, उसी कर्म का नाम 'स्यन्दन' है ।
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'संस्कारात् कर्मेष्वादिषूक्तम्, तथा चक्रादिषु' । ' तथा ' शब्द 'यथा' शब्द की अपेक्षा रखता है, क्योंकि 'यत्' शब्द और 'तत्' शब्द परस्पर नित्यसाकाङ्क्ष हैं । तदनुसार उक्त भाग्यग्रन्थ का यह आशय है कि जिस प्रकार तीर प्रभृति में वेगाख्यसंस्कार के द्वारा कर्म की उत्पत्ति कही गयी है, उसी प्रकार चत्रादि में भी ( वेग से ही संस्कार की उत्पत्ति ) होती है । 'अवयवानां पाश्वतः प्रतिनियत दिग्देशसंयोगविभागनिमित्तं कर्म तद् भ्रमणम्' इस भाष्यसन्दर्भ के द्वारा इसी अर्थ का प्रतिपादन किया गया है । ( इस सन्दर्भ का अक्षरार्थ यह है कि ) अवयवी के चारों ओर नियत जो दिग्देश हैं, उन देशों के साथ उनके अवयवों के संयोग और विभाग उत्पन्न होते हैं, उनके उत्पन्न होने पर अवयवी में रहने वाले वेगाख्य संस्कार से अनियमित दिग्देशों के साथ अर्थात् सभी दिशाओं के साथ संयोग और विभाग की उत्पत्ति होती है. इस संयोग या विभाग से जिस कर्म की उत्पत्ति