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न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम्
[ कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् आकाशकालदिगात्मनां सत्यपि द्रव्यभावे निष्क्रियत्वं सामान्यादिवदमूर्तत्वात् । मूर्तिरसर्वगतद्रव्यपरिमाणम् , तदनुविधायिनी
आकाश, काल, दिशा और आत्मा ये सभी द्रव्य होने पर भी क्रिया से रहित हैं, क्योंकि ये सभी सामान्यादि पदार्थों की तरह अमूर्त हैं। सभी द्रव्यों के साथ असंयुक्त ( कुछ ही द्रव्यों के साथ संयुक्त ) द्रव्य के
न्यायकन्दली प्राणाख्ये वायौ कर्म आत्मवायुसयोगादिच्छाद्वेषपूर्वक प्रयत्नापेक्षाद् भव. तीति । कथमिदं जातमत आह—इच्छानुविधानदर्शनात् । रेचकपूरकादिप्रयोगेष्विच्छानुविधायिनी प्राणकियोपलभ्यते । नासारन्ध्रप्रविष्टे रजसि तन्निरासाथ प्राणक्रिया द्वेषादपि भवति, अतः प्रयत्नपूर्विकेत्यवगम्यते। सुप्तस्य जीवनपूर्वकप्रयत्नापेक्षादात्मवायुसंयोगात् । सुप्तस्य प्राणक्रिया प्रयत्नकार्या प्राणक्रियात्वात् जाग्रतः प्राणक्रियावत् । स चेच्छाद्वेषपूर्वको न भवति, सुप्तस्येच्छाद्वेषयोरभावात् । तस्माज्जीवनपूर्वक एव निश्चीयते, प्राणधारणस्य तत्पूर्वकत्वात् ।।
चतुर्ष महाभूतेष्विवाकाशादिषु कस्मात् क्रियोत्पत्तिर्न चिन्तितेत्याहआकाशकालदिगात्मनामिति । क्रियावत्त्वं मूर्तत्वेन व्याप्तं मूर्तत्वं चाकाशादिषु
'प्राणाख्ये वायो कर्म आत्मवायुसंयोगादिच्छाद्वेषपूर्वकप्रयत्नापेक्षाद् भवतीति' प्राणवायु में उक्त प्रकार से क्रिया की उत्पत्ति कैसे होती है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'इच्छानुविधानदर्शनात' इस वाक्य से दिया गया है। अर्थात् रेचक, पूरक प्रभृति प्राणायाम में प्राणवायु की क्रियायें इच्छा के अनुरूप देखी जाती हैं। इसी प्रकार नाक के छिद्र में जब धूल चली जाती है, तो उसे निकालने के लिए द्वष से भी प्राणवायु में क्रिया देखी जाती है। अतः यह समझते हैं कि प्राणवायु की क्रिया का प्रयत्न कारण है। सुप्तपुरुष के प्राणवायु की क्रिया आत्मा और वायु के संयोग से उत्पन्न होती है, जिसमें उस संयोग को जीवनयोनियत्न का साहाय्य भी अपेक्षित होता है। इस प्रसङ्ग में यह अनुमान भी है कि जिस प्रकार जाग्रत् पुरुष के प्राणवायु की क्रिया केवल प्राण की क्रिया होने के कारण ही प्रयत्न से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार सुषुप्त पुरुष के प्राणवायु की क्रिया भी प्रयत्न से उत्पन्न होती है, क्यों के वह भी प्राण की ही क्रिया है । सुषुप्त पुरुष के प्राणवायु में क्रिया का उत्पादक-प्रयत्न, इच्छा और द्वेष से उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि सुषुप्त पुरुष में इच्छा और द्वेष का रहना सम्भव नहीं है। अतः सुषुप्त पुरुष के प्राणवायु में क्रिया का उत्पादक जीवनपूर्वक प्रयत्न ही है। क्योंकि प्राण का धारण उसी प्रयत्न से होता है।
'आकाशकालदिगात्मनाम्' इत्यादि सन्दर्भ से इस प्रश्न का उत्तर दिया गया हैं कि जिस प्रकार पृथिवी प्रभृति चार द्रव्यों में क्रिया की उत्पत्ति का विचार किया है, उसी
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