Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 799
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७२४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [कनिरूपण प्रशस्तपादभाष्यम् संस्कारादेवापतनादिति । बहूनि कर्माणि क्रमशः कस्मात ? संयोगबहुत्वात् । एकस्तु संस्कारः, अन्तराले कमणोऽपेक्षाकारणाभावादिति । विभाग उत्पन्न नहीं हो जाता। विभाग से नोदन नाम के संयोग के विनष्ट हो जाने पर तीर के वेग नाम के संस्कार से ही आगे की क्रियायें तीर के गिरने तक होती रहती हैं। (प्र. ) बहुत सी क्रियायें क्रमशः क्यों उत्पन्न होती हैं ? ( उ० ) यतः संयोग बहुत से हैं। किन्तु संस्कार उसमें एक ही रहता है, क्योंकि बीच में (संस्कार के उत्पादक प्रथम ) कर्म को अपेक्षित अन्य कारणों का ( सहयोग प्राप्त) नहीं है। न्यायकन्दली विभागान्निवृत्ते नोदने कर्माणि उत्तराणि संस्कारादेव वेगाख्याद् भवन्ति यावत् पतनम्, इषोरेतस्य च पातो गुरुत्वप्रतिबन्धकसंस्कारक्षयात् । अत्र चोदयति-बहूनि कर्माणि क्रमशः कस्मादिति। ज्याविभक्तस्येषोरन्तराले क्रमशो बहूनि कर्माणि भवन्तीति कस्मात् कल्प्यते ? एकमेव कर्म कुतो न कल्पितमित्यभिप्रायः । समाधत्ते-संयोगबहुत्वादिति। उत्तरसंयोगान्तं कर्मत्यवस्थितम् । क्षिप्तस्येषोरन्तराले बहवः संयोगा दृश्यन्ते । तेन बहूनि कर्माणि भवन्तीत्याश्रीयते । एकस्तु संस्कारः, अन्तराले कर्मणोऽपेक्षाकारणाभावात् । नोदनाभिघातयोरन्यतरापेक्षं कर्म संस्कारमारभते न कर्ममात्रम्, वेगाभावात् । है। नोदन से साहाय्यप्राप्त उस संस्कार से ही तब तक क्रियायें उत्पन्न होती रहती हैं, जब तक कि तीर और डोरी का विभाग उत्पन्न नहीं हो जाता। इस विभाग से जब उक्त नोदन संयोग का नाश हो जाता है, तब 'संस्कार' से ही अर्थात् वेग नाम के संस्कार से ही तब तक क्रियायें उत्पन्न होती रहती हैं जब तक कि तीर का पतन नहीं हो जाता। यह पतन गुरुत्व के प्रतिबन्धक संस्कार के नाश से उत्पन्न होता है । 'बहूनि कर्माणि क्रमशः कस्मात्' इस वाक्य के द्वारा फिर आक्षेप करते हैं। उक्त आक्षेपभाष्य का यह अभिप्राय है कि डोरो से विभक्त तीर में मध्यवर्ती अनेक क्रियाओं की कल्पना किस हेतु से की जाती है ? एक ही कर्म की कल्पना क्यों नहीं की जाती ? 'संयोगबहुत्वात्' इत्यादि से उक्त आक्षेप का समाधान करते हैं । यह निश्चित है कि क्रिया की सत्ता उत्तरदेश संयोग तक रहती है । एवं फेके हुए तीर के बीच में बहुत से संयोग देखे जाते हैं। अतः यह कल्पना करते हैं कि कर्म भी बहुत से उत्पन्न होते हैं। 'एकस्तु संस्कारोऽन्तराले कर्मणोऽपेक्षाकारणाभावात्' नोदनसंयोग हो या अभिघातसंयोग हो इन दोनों में से किसी एक का साहाय्य पाकर ही कर्म संस्कार को उत्पन्न करता है, केवल कर्म से बेगाख्यसंस्कार की उत्पत्ति नहीं होती। बीच में न नोदनसंयोग की For Private And Personal

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