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प्रकरणम्]
भाषांनुवादसहितम्
प्रशस्तपादभष्यम् एवमात्माधिष्ठितेषु सत्प्रत्ययमसत्प्रत्ययं च कर्मोक्तम् । अनधिष्ठितेषु बाह्येषु चतुर्यु महाभूतेष्वप्रत्ययं कर्म गमनमेव नोदनादिभ्यो भवति । तत्र नोदनं गुरुत्वद्रवत्ववेगप्रयत्नान् समस्त.
इस प्रकार आत्मा से अधिष्ठित द्रव्यों के प्रयत्नजनित और अप्रयत्नजनित दोनों ही प्रकार के कर्म कहे गये हैं। आत्मा की अध्यक्षता के बिना बाह्य चारों महाभूतों में बिना प्रयत्न के केवल नोदनादि से गमन रूप क्रिया की ही उत्पत्ति होती है (उत्क्षेपणादि क्रियाओं की नहीं)। यहाँ (कथित) 'नोदन' उस संयोग विशेष का नाम है जो कभी गुरुत्व, द्रवत्व, वेग और प्रयत्न सम्मिलित इन चार गुणों से, कभी इनमें से एक दो या तीन गुणों से उत्पन्न होता है। यह विभाग को उत्पन्न न करनेवाले कर्म
न्यायकन्दली न चान्तराले नोदनं नाप्यभिघातः, तस्मादेक एव शरज्यासंयोगापेक्षेण शरकर्मणा कृतो विशिष्टः संस्कारो यावत् पतनमनुवर्तते । यथा यथा चास्य कार्यकरणाच्छक्तिः क्षीयते, तथा तथा कार्य मन्दतरतमादिभेदभिन्नमुपजायते । यथा तरोस्तरुणस्य फलं प्रकृष्यतेऽपकृष्यते च जीर्णस्य ।
उपसंहरति-एवमिति । अनधिष्ठितेषु बाह्येषु चतुर्ष महाभूतेष्वप्रत्ययं गमनमेव नोदनादिभ्यो भवति । आत्मना असाधारणेन सम्बन्धिनानधिष्ठितेषु बाह्येष्वप्रयत्नपूर्वकं गमनाख्यमेव कर्म भवति, नोत्क्षेपणापक्षेपणादिकमित्यर्थः । महाभूतेषु नोदनादिभ्यः कर्म भवतीत्युक्तम् । अथ कि नोदनमत आहउत्पत्ति होती है, न अभिघातसंयोग की। अतः तीर और डोरी के एक ही संयोग के साहाय्य से तीर की क्रिया के द्वारा जिस विशेष प्रकार के वेगाख्य संस्कार की उत्पत्ति होती हैं, वही तीर के पतन होने तक बराबर बना रहता है। जैसे जैसे उससे कार्य होते जाते हैं, उसकी शक्ति क्षीण होती जाती हैं, एवं कार्य भी ( शक्ति की क्षीणता से) क्रमशः मन्द; मन्दतर और मन्दतम होते जाते हैं। जैसे कि तरुणवृक्ष का फल बढ़िया होता है, और जीर्णवृक्ष का फल घटियो।
___'एवम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं। अनधिष्ठितेषु बाह्येषु चतुर्यु महाभूतेष्वप्रत्ययं गमनमेव नोदनादिभ्यो भवति'। अर्थात् आत्मा रूप असाधारण आश्रय से असम्बद्ध पृथिव्यादि बाह्य चारों द्रव्यों में बिना प्रयत्न ( अप्रयत्नपूर्वकम् ) के ( नोदनादि संयोगों के द्वारा) गमन नाम का कर्म ही उत्पन्न होता है, उत्क्षेपण या अपक्षेपण प्रभृति कर्म नहीं।
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