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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
योऽसौ प्राक्तनोऽपक्षेपणसस्कार HTTPारभते? अपेक्षाकोरणाभावादत आह
प्रशस्तपादभाष्यम् करोति । यद्यपि प्राक्तनः संस्कारो विनष्टस्तथापि मुसलोलूखलयोः संयोगः पटुकर्मोत्पादकः संयोगविशेषभावात् तस्य संस्कारारम्भ साचिव्यसमर्थो भवति । अथवा प्राक्तन एव पटुः संस्कारोऽभिधातादसंस्कार के उत्पादन का मुख्य अधिष्ठाता है। अथवा पहिले का ही विशेष कार्यक्षम संस्कार अभिघात नाम के संयोग से नष्ट न होने के कारण
न्यायकन्दलो संयोगोऽसमवायिकारणभूतोऽप्रत्ययमप्रयत्नपूर्वकं हस्तेऽप्युत्पतनकर्म करोति । योऽसौ प्राक्तनोऽपक्षेपणसंस्कारो मसलगतः सोऽप्यभिघाताद विनष्टः, तदभावे कथं मूसले प्रत्ययमूत्पतनकमोत्पतनसंस्कारमारभते । अपेक्षाकारणाभावादत आहयद्यपि प्राक्तनः संस्कारो विनष्टः, तथापि मुसलोलूखलसंयोगः पटुकर्मोत्पादकः संस्कारजनककर्मोत्पादकः। कुतः ? संयोगविशेषभावात् संयोगविशेषत्वात् । किमतो यद्येवम् ? तत्राह-तस्य कर्मणः संस्कारारम्भे कर्तव्ये साचिव्यसमर्थो भवति, साहाय्ये समर्थो भवति । अस्मिन पक्षे हस्तमुसलयोरुत्पतनकर्मणी क्रमेण भवतः । आशुभावाच्च योगपद्यग्रहणम् ।
प्रकारान्तरमाह-अथवा प्राक्तन एव पटुः, संस्कारोऽभिघातादविनश्यन्नवस्थित इति विशिष्टकारणजत्वादतिप्रबलः संस्कारः स्पर्शवद्रव्यसंयोगेनापि अभिघातसंयोग के द्वारा विनष्ट हो चका है। उस संस्कार के न रहने पर मूसल की वह प्रयत्ननिरपेक्ष क्रिया मसल में उत्पतन क्रिया से उत्पन्न होनेवाले संस्कार को कैसे उत्पन्न कर सकती है ? क्योंकि (प्राक्तन संस्कार रूप) आवश्यक कारण वहाँ नहीं है। इसी प्रश्न का समाधान 'यद्यपि प्राक्तनः संस्कारो विनष्टः' इत्यादि से दिया गया है। इस सन्दर्भ के 'पटुकर्मोत्पादकः' इस वाक्य के द्वारा यह कहा गया है कि (मसल और उलूखल का संयोग ) ऐसे कर्म का उत्पादक है कि जिसमें ( वेगाख्य) संस्कार को उत्पन्न करने की शक्ति है। कुतः ?' अर्थात् संयोग में ही संस्कार को कारणता क्यों है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'संयोगविशेषभावात्' इस वाक्य से दिया गया है। अर्थात् यतः वह संयोग अन्य संयोगों से विशेष प्रकार का है, ( अतः उससे संस्कार की उत्पत्ति होती है)। उक्त संयोग में यदि विशिष्टता है भी तो इसका प्रकृत में क्या उपयोग है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'तस्य संस्कारारम्भे' इत्यादि से दिया गया है। अर्थात् उस संयोग में यही विशिष्टता है कि उसमे कम के द्वारा वेग ( सस्कार ) के उत्पादन में साहाय्य करने का सामर्थ्य है। इस पक्ष में हाथ में और मूसल में उत्पतन क्रियायें क्रमशः उत्पन्न होती हैं . ( युगपत् नही )। 'हस्तमुसलयोयुगपदपक्षेपणकर्मणी' इत्यादि वाक्य में जो योगपद्य का ग्रहण किया गया है, उसका अर्थ केवल शीघ्रता है ( अर्थात् दोनों में अतिशीघ्र उत्पतन कर्म की उत्पत्ति होती है।
'अथवा प्राक्तन एव पटुःसंस्कारोऽभिघातादविनश्यन्नवस्थिन इति' इस सन्दर्भ के द्वारा उक्त प्रश्न का ही दूसरे प्रकार से समाधान किया गया है। अभिप्राय
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