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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् न, कर्मत्वपर्यायत्वात् । आत्मत्वपुरुषत्ववत् कर्मत्वपर्याय एव गमनत्वमिति। अथ विशेषसंज्ञया किमर्थं गमनग्रहणं कृतमिति ? न, भ्रमणाचा रोधार्थत्वात् । उत्क्षेपणादिशब्दैरनवरुद्धानां भ्रमणपतनस्पन्दनादी
(उ०) नहीं (अर्थात् उक्त संशय का यहाँ कोई हेतु नहीं है), क्योंकि गमनत्व और कर्मत्व दोनों ही शब्द एक ही जाति के वाचक हैं। जैसे कि आत्मत्व और पुरुषत्व ये दोनों ही शब्द एक ही जाति के वाचक हैं, उसी प्रकार गमनत्वशब्द और कर्मत्वशब्द दोनों एक ही जाति रूप अर्थ के वाचक हैं। (प्र०) फिर ( उत्क्षेपणादि की तरह 'गमन' रूप) विशेष नाम के द्वारा गमन का उपादान क्यों किया गया है ? ( उ० ) नहीं, ( अर्थात गमन शब्द से गमन रूप क्रिया का अभिधान गमनत्व को कर्मत्वव्याप्य अतिरिक्त जाति रूप समझाने के लिए नहीं है, किन्तु ) भ्रमणादि क्रियाओं के संग्रह के लिए है। (विशदार्थ यह है कि ) उत्क्षेपणादि नामों के द्वारा संगृहीत
न्यायकन्दली अवान्तरभेदनिरूपणावसरे तस्य संकीर्तनात् । एवमुपपादिते परेण संशये सति मुनिः प्राह-नेति । न कर्तव्यः संशयः, कुतः ? गमनत्वस्य कर्मत्वपर्यायत्वात् । एतद् विवृणोति-आत्मत्वपुरुषत्ववत् कर्मत्वपर्याय एव गमनत्वमिति । यथात्मत्वस्य पर्यायः पुरुषत्वं समस्तभेदव्यापकत्वात्, तथा गमनत्वं कर्मत्वस्य पर्यायः । अथ किमर्थं विशेषसंज्ञया पृथग् गमनग्रहणं कृतम् ? इति चोदयति-अथेति । समझते हैं कि कर्मत्व का ही दुसरा नाम गमनत्व है। अर्थात् गमनत्व और कर्मत्व एक ही वस्तु है। क्योंकि क्रियाओं के जितने भी प्रकार हैं, उन सबों में गमनत्व को प्रतीति होती है, अतः गमनत्व और कर्मत्व एक ही वस्तु हैं । 'गमनत्व और कर्मत्व दोनों विभिन्न जातियाँ हैं' इस प्रसङ्ग में यह युक्ति है कि उत्क्षेपणादि विभिन्न क्रियाओं की पङ्क्ति में ही 'विशेष' नाम के द्वारा गमन रूप क्रिया का भी अलग से उल्लेख किया गया है, अतः समझते हैं गमनत्व नाम की कोई कमत्वव्याप्य अलग हो जाति है ( अतः उक्त संशय होता है)। क्योंकि क्रियाओं के अवान्तर भेदों का जहाँ निरूपण किया गया है, वहीं गमन का भी उल्लेख है।
इस प्रकार पूर्वपक्षी के द्वारा संसय का उपपादन किये जाने पर 'न' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा (प्रशस्तदेव ) मुनि ने अपना उत्कृष्ट उत्तर कहा है कि उक्त प्रकार से संशय करना युक्त नहीं है, यतः गमनत्व और कमत्व ये दोनों ही एक ही जाति के विभिन्न नाम हैं । 'आत्मत्वपुरुषत्ववत् कर्मत्वपर्याय एव गमनत्वम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी का विवरण देते हैं । अर्थात् जिस प्रकार पुरुष के जितने भी भेद हैं, उन सबों में आत्मस्व का व्यवहार होने के कारण आत्मत्व और पुरुषत्व एक ही जाति के दो नाम हैं, उसी प्रकार गमनत्व और कर्मत्व भी एक ही जाति के दो नाम हैं। 'अर्थ' इत्यादि
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