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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम् श्रोत्रग्राद्यः, क्षणिकः,
शब्दोऽम्बरगुणः विरोधी, संयोगविभागशब्दजः प्रदेशवृत्तिः,
,
आकाश का गुण ही शब्द है । वह क्षणिक है, एवं उसके कार्य और उसके
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[ गुणनिरूपणे शब्द
कार्य कारणोभयसमानासमानजातीय
उसका प्रत्यक्ष श्रोत्र से होता हैं । कारण दोनों ही उसके विनाशक हैं ।
न्यायकन्दली
सुखं तदभावान्न तदनुभवो मोक्षावस्था, किन्तु समस्तात्म विशेष - जोन्छेबोपलक्षिता स्वरूपस्थितिरेव । यथा चायं पुरुषार्थस्तथोपपादितम् । शब्दोऽम्बरगुणः आकाशगुणः । ननु संख्यादयोऽप्याकाशगुणाः सन्ति, कथमिदं शब्दस्य लक्षणं स्यादत आह— श्रोत्रग्राह्य इति । श्रोत्रग्राह्यत्वे सत्यम्बरगुणो यः स शब्द इत्यर्थः । परस्य विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थमाहक्षणिक इति । आशुतरविनाशी शब्दो न तु नित्यः, उच्चारणादूर्ध्वमनुपलम्भात् । सद्भावे प्रमाणाभावेन व्यञ्जकत्वकल्पनानवकाशात् । प्रत्यभिज्ञानस्य ज्वा लादिवत् सामान्यविषयत्वेनोपपत्तेस्तीव्रमन्दतादिभेदस्य च व्यक्ति भेदप्रसाधकत्वात् । कार्यकारणोभयविरोधी आद्यः शब्दः स्वकार्येण विरुध्यते । अन्त्यः स्वकारणेनोपान्त्यशब्देन विरुध्यते, अन्त्यस्य विनाशकारणस्याभावात् । मध्य
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गुणों के आत्यन्तिकविनाश से युक्त आत्मा की स्वरूपस्थिति ही मोक्ष' है । यह अवस्था पुरुष के लिए काम्य क्यों है ? इसका उपपादन ( मङ्गलश्लोक की व्याख्या में ) कर चुके हैं ।
'शब्दोऽम्ब र गुणः' अर्थात् आकाश का गुण ही शब्द है । संख्यादि भी तो आकाश के गुण हैं, फिर आकाश का गुण होना शब्द का लक्षण कैसे हो सकता है ? इसी आक्षेप के समाधान के लिए 'श्रोत्रग्राह्य' पद का उपादान किया गया है । अर्थात् जो थोत्र के द्वारा ग्रहण के योग्य हो, और आकाश का गुण भी हो वही 'शब्द' है । शब्द में नित्यत्व पक्ष के निराकरण के लिए ही 'क्षणिक : ' यह पद प्रयुक्त हुआ है । अर्थात् उत्पत्ति के बाद शब्द अतिशीघ्र विनष्ट हो जाता है, अतः वह नित्य नहीं है क्योंकि उच्चारण के बाद फिर उसकी उपलब्धि नहीं होती है । ( प्र ० उच्चारण के बाद शब्द की अभिव्यक्ति का कोई साधन नहीं रहता, अतः शब्द की उपलब्धि नहीं होती, किन्तु उस समय भी शब्द है ही । ( उ०) उच्चारण के बाद शब्द की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है, अतः शब्द के व्यञ्जक की कल्पना करने का कोई अवकाश नहीं है । 'सोऽयं गकारः ' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा को सादृश्यमूलक मान लेने से भी काम चल सकता है । एवं शब्दों में एक दूसरे में तीव्र और मन्द का व्यवहार होता है । ( वह भी नित्यस्व पक्ष में उपपन्न नहीं होता ) इससे अनेक शब्दों की कल्पना आवश्यक होती है । 'कार्यकारणोभयविरोधी' अर्थात् प्रथम शब्द अपने द्वारा उत्पन्न द्वितीय शब्द से विनष्ट होता हैं,