Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 767
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६६२ न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् श्रोत्रग्राद्यः, क्षणिकः, शब्दोऽम्बरगुणः विरोधी, संयोगविभागशब्दजः प्रदेशवृत्तिः, , आकाश का गुण ही शब्द है । वह क्षणिक है, एवं उसके कार्य और उसके Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गुणनिरूपणे शब्द कार्य कारणोभयसमानासमानजातीय उसका प्रत्यक्ष श्रोत्र से होता हैं । कारण दोनों ही उसके विनाशक हैं । न्यायकन्दली सुखं तदभावान्न तदनुभवो मोक्षावस्था, किन्तु समस्तात्म विशेष - जोन्छेबोपलक्षिता स्वरूपस्थितिरेव । यथा चायं पुरुषार्थस्तथोपपादितम् । शब्दोऽम्बरगुणः आकाशगुणः । ननु संख्यादयोऽप्याकाशगुणाः सन्ति, कथमिदं शब्दस्य लक्षणं स्यादत आह— श्रोत्रग्राह्य इति । श्रोत्रग्राह्यत्वे सत्यम्बरगुणो यः स शब्द इत्यर्थः । परस्य विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थमाहक्षणिक इति । आशुतरविनाशी शब्दो न तु नित्यः, उच्चारणादूर्ध्वमनुपलम्भात् । सद्भावे प्रमाणाभावेन व्यञ्जकत्वकल्पनानवकाशात् । प्रत्यभिज्ञानस्य ज्वा लादिवत् सामान्यविषयत्वेनोपपत्तेस्तीव्रमन्दतादिभेदस्य च व्यक्ति भेदप्रसाधकत्वात् । कार्यकारणोभयविरोधी आद्यः शब्दः स्वकार्येण विरुध्यते । अन्त्यः स्वकारणेनोपान्त्यशब्देन विरुध्यते, अन्त्यस्य विनाशकारणस्याभावात् । मध्य For Private And Personal गुणों के आत्यन्तिकविनाश से युक्त आत्मा की स्वरूपस्थिति ही मोक्ष' है । यह अवस्था पुरुष के लिए काम्य क्यों है ? इसका उपपादन ( मङ्गलश्लोक की व्याख्या में ) कर चुके हैं । 'शब्दोऽम्ब र गुणः' अर्थात् आकाश का गुण ही शब्द है । संख्यादि भी तो आकाश के गुण हैं, फिर आकाश का गुण होना शब्द का लक्षण कैसे हो सकता है ? इसी आक्षेप के समाधान के लिए 'श्रोत्रग्राह्य' पद का उपादान किया गया है । अर्थात् जो थोत्र के द्वारा ग्रहण के योग्य हो, और आकाश का गुण भी हो वही 'शब्द' है । शब्द में नित्यत्व पक्ष के निराकरण के लिए ही 'क्षणिक : ' यह पद प्रयुक्त हुआ है । अर्थात् उत्पत्ति के बाद शब्द अतिशीघ्र विनष्ट हो जाता है, अतः वह नित्य नहीं है क्योंकि उच्चारण के बाद फिर उसकी उपलब्धि नहीं होती है । ( प्र ० उच्चारण के बाद शब्द की अभिव्यक्ति का कोई साधन नहीं रहता, अतः शब्द की उपलब्धि नहीं होती, किन्तु उस समय भी शब्द है ही । ( उ०) उच्चारण के बाद शब्द की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है, अतः शब्द के व्यञ्जक की कल्पना करने का कोई अवकाश नहीं है । 'सोऽयं गकारः ' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा को सादृश्यमूलक मान लेने से भी काम चल सकता है । एवं शब्दों में एक दूसरे में तीव्र और मन्द का व्यवहार होता है । ( वह भी नित्यस्व पक्ष में उपपन्न नहीं होता ) इससे अनेक शब्दों की कल्पना आवश्यक होती है । 'कार्यकारणोभयविरोधी' अर्थात् प्रथम शब्द अपने द्वारा उत्पन्न द्वितीय शब्द से विनष्ट होता हैं,

Loading...

Page Navigation
1 ... 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869