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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् भेदोऽपि सिद्धः। एवमपि पञ्चैवेत्यवधारणानुपपत्तिः। निष्क्रमणप्रवेशनादिष्वपि वर्गशः प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिदर्शनात् । यद्युत्क्षेपणाएवं 'अप' प्रभृति उपसर्ग, एवं उन क्रियाओं के द्वारा किसी विशेष प्रदेश में ही नियम से किसी विशेष प्रकार के कार्यों का उत्पादन करना भी 'उपलक्षणभेद' अर्थात् उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों के साधक हैं।
(प्र० ) तब फिर कर्म पाँच ही हैं। यह नियम भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि निष्क्रमण एवं प्रवेशन प्रभृति क्रियाओं में भी विभिन्न प्रकार की अनुवृत्तिप्रतीतियाँ और व्यावृत्तिप्रतीतियाँ होती हैं। यदि उत्क्षेपणादि प्रत्येक क्रियासमह में विभिन्न प्रकार की अनुवृत्तिप्रतीति और व्यावृत्तिप्रतीति से उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों की कल्पना करते हैं, तो फिर
न्यायकन्दली जातिः। तदयमत्रार्थः-न केवलमनुवृत्तिव्यावृत्तिप्रत्ययदर्शनादुत्क्षेपणापक्षेपणादीनां जातिभेदः सिद्धः, उदाधुपसर्गभेदात् प्रतिनियतदिग्विशिष्टकार्यारम्भादपि सिद्धः । अपरे तु तेषामुत्क्षेपणादीनामुदाद्युपसर्गविशेषाद् दिग्विशिष्टकार्यारम्भादुपलक्षणभेदोऽपि प्रतिपत्तिभेदोऽपि सिद्ध इति । अभेदे हि यथोत्क्षेपणमूर्घसंयोगविभागहेतुरेवमपक्षेपणादिकमपि स्यात् । पुनश्चोदयति एवमपीति । यदि प्रतिवर्ग प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिदर्शनादुत्क्षेपणादिषु सामान्यमभ्युपेयते, तदा निष्क्रमणादिष्वपि प्रतिवर्ग प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिदर्शनानिष्क्रमणत्वादिकमभ्युपेयम्, ततश्च व्यक्ति से भिन्नत्व की प्रतीति भी होती है, इन्हीं दोनों प्रतीतियों से 'गोव' जाति की कल्पना करते हैं, उसी प्रकार उत्क्षेपणत्वादि बातियों की भी कल्पना करते हैं। इस भाष्य ग्रन्थ की व्याख्या सुबोध है। 'तेषाम्' इत्यादि सन्दर्भ के 'उपलक्षणभेदोऽपि' इस वाक्य में जो 'अपि शब्द है उसका पाठ 'कार्यारम्भात्' इस वाक्य के बाद ही समझना चाहिए (अर्थात् कार्यारम्भादप्युपलक्षणभेदः-वाक्य का ऐसा स्वरूप समझना चाहिए)। 'उपलक्ष्यते अन्यविलक्षणतया प्रतिपाद्यते व्यक्तिरनया' अर्थात् ('उपलक्षित हो' अर्थात् व्यक्ति दूसरों से भिन्न रूप में समझी जाय जिससे' ) इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'उपलक्षण' शब्द से यहाँ 'जाति' ही विवक्षित है। केवल अनुवृत्तिप्रत्यय ( अर्थात् सभी उत्क्षेपण क्रियाओं में 'यह उत्क्षेपण है' इत्यादि एक आकार की प्रतीति) एवं व्यावृत्तिप्रत्यय ( अर्थात् उत्क्षेपणादि प्रत्येक व्यक्ति में उससे भिन्न अपक्षेपणादि क्रियाअं से भिन्नत्व की बुद्धि ) ही उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों के साधक नहीं हैं, उद्, अप प्रभृति उपसर्ग के भेद एवं विभिन्न नियत देशों में ही कार्यों को उत्पन्न करना भी उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों के साधक हैं। किसी सम्प्रदाय के लोग 'तेषामुदाद्यपसर्गविशेषात्' इत्यादि सन्दर्भ की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि 'तेषाम्' अर्थात
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