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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् दिषु सर्वत्र वर्गशः प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिदर्शनाज जातिमेद इष्यते, एवं च निष्क्रमणप्रवेशनादिष्वपि कार्यभेदात् तेषु प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्ती इति चेत् ? न, उत्क्षेपणादिष्वपि कार्यभेदादेव प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिप्रसङ्गः। अथ समाने वर्गशः प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिसद्भावे उत्क्षेपणादीनामेव जातिभेदो न निष्क्रमणादीनामित्यत्र विशेषहेतुरउसी युक्ति से निष्क्रमण और प्रवेशनादि क्रियाओं में भी विभिन्न जातियों की कल्पना करनी होगी। यदि (ऊपर के देश के साथ संयोगादि रूप) कार्य की विभिन्नता से । उनमें विभिन्न ) अनुवृत्तिप्रतीतियाँ और व्यावृत्तिप्रतीतियाँ होती हैं, तो फिर कार्य की विभिन्नता ही उन प्रतीतियों का कारण होगी (जाति की विभिन्नता नहीं)। उत्क्षेपणादि समान क्रियाओं के समूहों में अनुवृत्ति और व्यावृत्ति के कारण उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों की कल्पना की जाय, और निष्क्रमण प्रवेशनादि क्रियाओं में ठीक वही युक्ति रहने पर भी विभिन्न जातियों की कल्पना न की जाय, इसमें कोई विशेष युक्ति नहीं है।
(उ० ) ऐसी बात नहीं है, ( अर्थात उत्क्षेपणत्वादि जातियाँ मानी जाँय और निष्क्रमणत्वादि जातियाँ नहीं, इसमें विशेष युक्ति है) यदि
___न्यायकन्दली पञ्चैवेत्यवधारणानुपपत्तिः । अथ निष्क्रमणादिषु कार्यभेदात् प्रत्ययभेदो न जातिभेदात, तदोत्क्षेपणादिष्वपि तथा स्यादित्याह-कार्यभेदात् तेष्विति । समाधत्ते नेति । यदि निष्क्रमणत्वादिजातय इष्यन्ते, तदा जातिसङ्करप्रसङ्गः। उत्क्षेपणादि का 'उ' 'अप' प्रभृति विभिन्न उपसर्गों के कारण एवं विशेष दिशाओं में कार्योत्पादक होने के कारण 'उपलक्षणभेदोऽपि' अर्थात् प्रतिपत्ति (प्रतीति ) का भेद भी सिद्ध होता है ( एवं प्रतिपत्ति के भेद से बस्तुओं का भेद सुतराम् सिद्ध है )। उत्क्षेपणादि सभी कर्म यदि अभिन्न हों तो फिर जिस प्रकार उत्क्षेपण क्रिया ऊर्ध्वदेश में ही संयोग और विभाग को उत्पन्न करती है, वैसे ही अपक्षेपणादि क्रियायें भी ऊध्वंदेश में ही संयोगादि को उत्पन्न करतीं। 'एवमपि' इत्यादि से पुन: आक्षेप करते हैं । आक्षेप करने. वालों का यह अभिप्राय है कि यदि उत्क्षेपणादि प्रत्येक वर्ग में अलग अलग अनुवृत्तिप्रत्यय और व्यावृत्तिप्रत्यय के कारण उत्क्षेपणादि अलग अलग जातियों की कल्पना करें, तो फिर निष्क्रमण ( जाना ) और प्रवेशन (आना) प्रभृति प्रत्येक वर्ग के भी उक्त अनुवृत्तिप्रत्यय और व्यावृत्तिप्रत्यय विभिन्न प्रकार के हैं ही। अतः उनमें भी अलग अलग जाति का मानना आवश्यक होगा। जिससे 'पञ्चैव कर्माणि' यह अवधारण असङ्गत हो जाएगा। 'कार्यभेदात् तेषु' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इस प्रसङ्ग में उपपत्ति देते है कि यदि निष्क्रमण प्रवेशन प्रभृति की प्रतीतियों की विभिन्नता जातिभेदमूलक न
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