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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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दत्तः स्वहस्तो निरालम्बनं विज्ञानमिच्छतां महायानिकानाम् । अथ भूतलमालम्बनम् ? कण्टकादिमत्यपि भूतले कण्टको नास्तीति संवित्तिः, तत्पूर्वकश्च निःशङ्कं गमनागमन लक्षणो व्यापारो दुर्निवारः । केवलभूतलविषयं 'नास्तोति' संवेदनम्, कण्टकसद्भावे च कैवल्यं निवृत्तमिति प्रतिपत्तिप्रवृत्त्योरभाव इति चेत् ? ननु किं कैवल्यं भूतलस्य स्वरूपमेव ? किमुत धर्मान्तरम् ? स्वरूपं तावत् कण्टकादिसंवेदनेऽप्यपरावृत्तमिति स एव प्रतिपत्तिप्रवृत्योरविरामो दोषः 1 धर्मान्तरपक्षे च तत्त्वान्तरसिद्धिः ।
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अथ मन्यसे भाव एकाकी सद्वितीयश्चेति द्वयीमवस्थामनुभवति । तत्रैकाकीभावः स्वरूपमात्रमिति केवल इति चोच्यते तादृशस्य तस्य दृश्ये
कि 'नास्ति' इस आकार की बुद्धि का विषय ( प्रमेय ) कौन है ? इस प्रश्न के उत्तर में वे यदि यह कहें कि ( प्र०) उस बुद्धि का कोई भी विषय नहीं है, क्योंकि उक्त भाष्य और वातिक दोनों ही में 'प्रत्यक्षादि पाँचों प्रमाणों को अनुत्पत्ति' को ही 'अभाव' प्रमाण कहा गया है। किसी के भी मत से स्मृति प्रमाण नहीं है, अतः स्मृति के किसी भी अभाव का प्रामाण्य भाष्य और वार्तिक के द्वारा अनुमोदित नहीं हो सकता । ( उ० ) तो फिर बिना विषय के ही विज्ञान की इच्छा करनेवाले महायान के अनुयायियों को हो तरफ आप अपना हाथ बढ़ाते हैं । यदि इस प्रश्न के उत्तर में यह कहें कि (प्र० ) ( कण्टकाभावादि का ) भूतल रूप आश्रय ही उक्त 'नास्ति' प्रत्यय का विषय है, ( उ०) तो फिर काँट प्रभृति से युक्त भूतल में भी 'कण्टको नास्ति' इस आकार को बुद्धि होगी, जिससे कि ( निष्कण्टक भूमि की तरह ) काँटों से युक्त भूतल में भी निःशङ्क होकर जाना जाना सम्भव हो जाएगः । ( प्र०) 'नास्ति' इस प्रकार की उक्त बुद्धि का 'केवल' भूतल ही विषय है। फाँट के रहने पर भूतल से यह 'कैवल्य' हट जाता है यत भूतल में काँट के न न इस 'प्रतिपत्ति' की आपत्ति ही होती है, और प्रवृत्ति हो हो पाती हूँ । ( उ० ) इस प्रसङ्ग में भूतल स्वरूप है, या उससे भिन्न कोई दूसरा फिर ) भूतल में कण्टकादि ज्ञान के समय भी ( इस पक्ष में भी उक्त निःशङ्क प्रवृत्ति की, और कण्टक के रहने 'कण्टको नास्ति' इस ज्ञान की आपत्ति रहेगी ही । यदि कैवल्य को भूतल से भिन्न कोई दूसरा धर्म मानें तो (अभाव की तरह) किसी दूसरे पदार्थ का मानना आवश्यक ही होगा । दो अवस्थायें होती हैं ( १ ) एकाकी 'एकाकी' अवस्था से युक्त भूतल ही भूतल में ( घटभाव ) प्रतियोगी
रहने पर भूतल में 'कण्टको नास्ति' न गमन और आगमन को निःशङ्क पूछना है कि भूतल का यह 'कैवल्य' धर्म है ? ( यदि पहिला पक्ष मानें तो मूतल स्वरूप वह ) कैवल्य है हो । अतः पर भी भूतल में
यदि यह कहें कि ( प्र०) भाव की अवस्था और ( २ ) सद्वितीयावस्था | इनमें 'स्वरूप मात्र ' कहलाता है । इस केवल
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