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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दलो प्रमाणमुपदर्श्यते । तदभावे प्रतिपादिते, प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टत्वाभावे निश्चिते, प्रख्यापितसामर्थ्य साधनं साध्यं समर्थयतीति प्रत्याम्नायोपयोगः । तत्र यद्यनुक्तमपि सामर्थ्यमर्थाद् गम्यत इत्यस्य प्रतिक्षेपः क्रियते, तदोदाहारणादिकमपि प्रतिक्षेप्तव्यम् । प्रतिज्ञानन्तरं हेत्वभिधाने कृते विदुषां स्वयमेवान्वयव्यतिरेकस्मरणादर्थावगतिसम्भवात् ।।
एतदुक्तं भवति । न प्रतिपन्नं प्रति परार्थानुमानम्, वैयर्थ्यात् । न च प्रतिपाद्यस्य कियत्यङ्ग प्रतिपत्तिरस्ति, कियति नास्तीति शक्यमवगन्तुम्, परचित्तवृत्तेर्दु रुन्नयत्वात् । नापि तच्छक्त्यनुरोधाद् वाक्यकल्पना युक्ता, प्रतिपत्तणां विचित्रशक्तिमत्त्वात् । तस्मात् परं बोधयता यावता हेतोः साधकत्वं
इन दोनों सामथ्र्यों का प्रतिपादन नहीं होगा, तब तक प्रतिपक्ष की सम्भावना बनी ही रहेंगी। इस प्रकार ( व्याप्ति और पक्षधर्मता से युक्त हेतु का पक्ष में उपसंहार होने पर भी माध्य को (प्रमा) प्रतीति नहीं हो पाती है। अत: साध्य के विपरीत अर्थात् साध्याभाव के साधक प्रमाणों के अभाव के ग्राहक प्रमाण का भी प्रदर्शन किया जाता है । इस प्रकार विपरीत अर्थात् उक्त प्रमाणाभाव की उपपति से ही हेतु में प्रकरणसमत्वाभाव ( असत्प्रतिपक्षितत्व ) और कालात्ययापदिष्टत्वाभाव ( अबाधितत्व ) इन दोनों का भी निश्चय होता है। इस रीति से हेतु में साध्य के साधक उक्त सभी सामर्यों के ज्ञान से ही हेतु साध्य का साधन करता है, अतः प्रत्याम्नाय (निगमन) का प्रयोग आवश्यक है। ऐसी स्थिति में यदि प्रत्याम्नाय वाक्य के बिना कहे हुए भी हेतु के उक्त प्रकरणसमत्वाभाव और कालात्ययापदिष्ट स्वाभाव रूप सामथ्र्थ का आक्षेप से बोध मांन कर प्रत्याम्नाय ( निगमन ) वाक्य का खण्डन करें, तो फिर ( व्याप्ति और पक्षधर्मता के बोधक ) उदाहरणादि वाक्यों का भी खण्डन करना होगा । क्योंकि प्रतिज्ञा वाक्य के बाद हेतु वाक्य का प्रयोग कर देने से ही बोद्धा को स्वयं हेतु का साध्य के साथ जो अन्वय और व्यतिरेक है, उसका स्मरण हो जाएगा, जिससे साध्य की अनुमिति हो जाएगी।
सिद्धान्तियों के इस सन्दर्भ का यह अभिप्राय है कि सर्वथा व्युत्पन्न पुरुष के लिए परार्थानुमान का प्रयोग व्यर्थ होने के कारण अपेक्षित हो नहीं है। यतः दूसरे की चित्तवृत्ति को यथार्थ रूप से समझना भी बहुत कठिन है। अतः बोद्धा को 'अनुमिति के उत्पादक कितने अङ्गों का ज्ञान है एवं कितने अङ्गों का नहीं' यह समझना भी असम्भव सा ही है। यह भी सम्भव नहीं है कि बोद्धा के सामर्थ्य के अनुसार अवयव वाक्यों का प्रयोग हो, क्योंकि बोद्धाओं के प्रत्येक व्यक्ति में अलग अलग प्रकार की शक्ति होती है । अतः वस्तुस्थिति के अनुसार हेतु की जितनी शक्तियों से साध्य का प्रतिपादन सम्भव है, उन सभी को समझाने के लिए जितने वाक्यों की आवश्यकता जान पड़े, उन सभी वाक्यों का प्रयोग सभी परार्थानुमानों में कर देना चाहिए। यह नहीं कि जहाँ जिस बोद्धा
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