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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुणनिरूपणे संस्कार
प्रशस्तपादभाष्यम् संस्कारस्त्रिविधः-वेगो भावना स्थितिस्थापकश्च । तत्र वेगो मूर्तिमत्सु पञ्चसु द्रव्येषु निमित्तविशेषापेक्षात्
() वेग ( २ ) भावना और ( ३ ) स्थितिस्थापक भेद से संस्कार तीन प्रकार का है। इनमें वेग मूर्त्तद्रव्यों में ही विशेष प्रकार के निमित्तकारणों की सहायता से क्रिया के द्वारा उत्पन्न होता हैं। वह ( वेग) किसी
न्यायकन्दली सांसिद्धिकं द्रवत्वं व्याख्याय नैमित्तिकं व्याचष्टे--नैमित्तिकं पृथिवीतेजसोरग्निसंयोगजमिति । कथमित्यज्ञेन पृष्ट: सन्नुपपादयति--सपिरित्यादिना । सपिर्जतुमधूच्छिष्टानां पाथिवानां कारणषु परमाणुष्वग्निसंयोगात् क्रियोत्पत्तौ सत्यां कर्मजेभ्यो विभागेभ्यः सपिराद्यारम्भकसंयोगविनाशात् सपिरादिद्रव्यनिवृत्तौ सत्यां स्वतन्त्रेषु परमाणुषु वह्निसंयोगाद् द्रवत्वमुत्पद्यते । तदनन्तरमुत्पन्नद्रवत्वेषु परमाणुषु भोगिनामदृष्टापेक्षादात्मपरमाणुसंयोगात् क्रियोत्पत्तौ सत्यां कर्मजेभ्यः परमाणूनां परस्परसंयोगेभ्यो द्वयणुकादिप्रक्रमेण कार्यद्रव्ये जाते रूपाद्युत्पत्तिकाले एव कारगद्रवत्वेभ्यो द्रवत्वमुत्पद्यते। हिमकरकादिविलयनेऽप्येवमेव न्यायः।
स्नेहोऽपां विशेषगुण: संग्रहमृजादिहेतुः । संग्रहः परस्परमयुक्तानां
सांसिद्धिक द्रवत्व की व्याख्या करने के बाद 'नैमित्तिकं पृथिवीतेजसोरग्निसंयोगजम' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अप क्रमप्राप्त नैमित्तिक द्रवत्व की व्याख्या करते हैं। 'कथम्' अर्थात् नैमित्तिकद्रवत्व की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, किसी अज्ञ के द्वारा यह पूछे जाने पर 'सपिः' इत्यादि से उस प्रश्न का उत्तर देते हैं। घृत,लाह, एवं माम प्रभृति (नैमित्तिक द्रवत्व वाले पार्थिव अवयवी द्रव्यों के) कारणीभूत परमाणुओं में अग्नि के संयोग से क्रिया उत्पन्न होती है, क्रियाओं से परमाणुओं में विभाग उत्पन्न होते हैं । कर्मजनित इन विभागों से परमाणुओं में रहनेवाले (द्वथणुकों के) उत्पादा पूर्वसंयोगों का नाश होता है। इन संयोगों के विनाश से घृतादि अवयवी द्रव्यों का परमाणुपयन्त विनाश हो जाता है । इस प्रकार उन परमाणुओं के स्वतन्त्र हो जाने पर इन स्वतन्त्र परमाणुओं में वह्नि के संयोग से द्रवत्व की उत्पत्ति होती है । भोग जनक अदृष्ट की सहायता से आत्मा और परमाणु के संयोग से (द्रवत्वयुक्त) परमाणुओं में क्रिया की उत्पत्ति होती है। फिर परमाणुओं के कर्मजनित इन संयोगों से द्वथणुकादि क्रम से कार्य द्रव्यों की उत्पत्ति होती है, फिर आगे के क्षण में रूपादि गुणों की उत्पत्ति होती है. उसी क्षण में समवायिकारणों में रहनेवाले द्रवत्वों से कार्यद्रव्यों में द्रवत्व की उत्पत्ति होती है। हिमकरकादि में द्रवत्वविलय के प्रसङ्ग में भी इसी रीति का अनुसरण करना चाहिए।
स्नेहोऽपां विशेषगुणः संग्रहमृजादिहेतुः' । 'संग्रह' उस विशेष प्रकार के संयोग का नाम है, जिससे परस्पर असंयुक्त सत्तू प्रभृति द्रव्यों का गोला बन जाता है।
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