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प्रकरणम् ]
६४६
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
ष्विति । दृष्टश्रुतानुभूतेष्वर्थेषु स्मृतेः प्रत्यभिज्ञानस्य च हेतुरिति तस्य कार्यकथनम् । दृष्टश्रुतानुभूतेष्विति विपर्ययावगतोऽप्यर्थो बोद्धव्यः, तत्रापि स्मृतिदर्शनात् । ज्ञानेति । प्रतिपक्षज्ञानेन संस्कारो विनाश्यते। द्यूतादिव्यसनापन्नस्य पूर्वाधीतविस्मरणात् । मदेनापि संस्कारस्य विनाशः, सुरमित्तस्य पूर्वस्मृतिलोपात् । मरणादिदुःखादपि संस्कारो विनश्यति, जन्मान्तरानुभूतस्मरणाभावात् । आदिशब्देन सुखादिपरिग्रहः, भोगासक्तस्य कुपितस्य वा पूर्ववृत्तस्मृत्यभावात् । पटवभ्यासेति । पटुप्रत्ययादभ्यासप्रत्ययादादरप्रत्ययाच्च संस्कारो जायते। पटुप्रत्ययापेक्षादात्ममनसोः संयोगविशेषादाश्चर्यऽर्थ पटुः संस्कारो जायते।
यथेति। उष्ट्रो दाक्षिणात्यस्यात्यन्ताननुभूताकारत्वादाश्चर्यभूतोऽर्थः। तद्दर्शनात् तस्य पटुः संस्कारो जायते, कालान्तरेऽप्युष्ट्रानुभवस्मृतिजननात् । अभ्यासप्रत्ययजं संस्कारं दर्शयति-विद्याशिल्पेत्यादि । विद्या शास्त्रागमादिका, शिल्पं पत्त्रभङ्गादिक्रिया, व्यायाम आयुधादिश्रमः, तेष्वभ्यस्यमानेषु तस्मिन्नेवार्थे गया है कि इससे प्रत्यक्ष एवं अनुमान के द्वारा ज्ञात अथं को स्मृति और प्रत्यभिज्ञान नाम का विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है। 'दृष्टानुभूतेषु' इस पद से ( केवल प्रत्यक्ष प्रमा और अनुमानप्रमा के द्वारा ज्ञात अर्थ ही नहीं, किन्तु ) विपर्यय के द्वारा ज्ञात अर्थों का भी ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उनके विषयों को भी स्मृति होती है । 'ज्ञानेति' विरोधिज्ञान से संस्कार का विनाश होता है, क्योंकि जूआ प्रभृति व्यसनों में लगे हुए व्यक्ति को पहिले के अधीत विषयों का विस्मरण हो जाता है । मद से भी संस्कार का विनाश होता है, क्योंकि सुरापान से मत्त व्यक्ति के पूर्वस्मृति का लोप देखा जाता है । मरणादि दुःखों से भी संस्कार का नाश होता है, क्योंकि दूसरे जन्म की बातों का स्मरण नहीं होता । ('ज्ञानमददुःखादि' पद में प्रयुक्त) 'आदि' पदसे सुखादि का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि भोग में आसक्त पुरुषों को या अत्यन्त क्रुद्ध पुरुषों को पहिले की बातों की विस्मृति हो जाती है। 'पट्वभ्यासेति' पटुप्रत्यय से, अभ्यासप्रत्यय से एवं आदरप्रत्यय से संकार की उत्पत्ति होती है । ‘पटुप्रत्यायादाम मनसोः संयोगविशेषादाश्चर्येऽर्थे पटुः संस्कारो जायते यथेति'।
(दक्षिण देश में ऊँट नहीं होता, अतः) दाक्षिणात्यों को ऊँट का कभी अनुभव नहीं रहता, अतः कभी देखने पर अत्यन्त आश्चर्य होता है; जिससे ऊँट को एक बार देखने पर भी उसे ऊँट विषयक 'पटुसंस्कार' ही उत्पन्न होता है । अतः बहुत दिनों के बाद भी ऊंट की उन्हें स्मृति होतो है। विद्याशिल्पेत्यादि इस सन्दर्भ के द्वारा अभ्यासप्रत्यय से उत्पन्न संस्कार का निरूपण किया गया है। इस सन्दर्भ के 'विद्या' शब्द से शास्त्र एवं आगम प्रभृति अभिप्रेत हैं। 'शिल्प' शब्द से पत्रभङ्गादि' क्रियाओं को समझना चाहिए। 'व्यायाम' शब्द से अस्त्रशस्त्रादि चलाने का श्रम लेना चाहिए। इन सबों का अभ्यास करने पर, 'तस्मिन्नेवार्थे' अर्थात् पहिले अनुभूत उसी अर्थ में ( संस्कार की उत्पत्ति होती है )। 'पूर्वपूर्वेत्यादि' यत: वह संस्कार बहुत दिनों
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