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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् म्पातदर्शनवदादरप्रत्ययः तमपेक्षमाणादात्ममनसोः संयोगात् संस्कारातिशयो जायते । यथा देवहदे राजतसौवर्णपद्मदर्शनादिति । की इच्छावाले पुरुष को विद्युत सम्पात के देखने की तरह ( उक्त विशेष वस्तु में ) आदरबुद्धि उत्पन्न होती है। इस आदरबुद्धि एवं आत्मा और मन के सयोग, इन दोनों से विशेष प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है। जैसे देवताओं के सरोवर में चाँदी और सोने के कमलफूल देखने से ( विशेष प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है )।
न्यायकन्दली तथाभूतानामेव तेषां कार्येणाधिगमात् । सन्तु वा भावनारूपाः संस्कारास्तथापि तेषामर्थप्रतिपादनसामर्थ्यमुपपद्यते, तद्भावभावित्वात् । यो हि स्फोटं कल्पयति, तेन स्फोटस्यार्थप्रतिपादनशक्तिरपि कल्पनीयेति कल्पनागौरवम् । उभयसिद्धस्य संस्कारस्य सामर्थ्यमात्रकल्पनायां लाघवमस्तीत्येतदेव कल्पयितुमुचितम् । यथोक्तं न्यायवादिभिः
यद्यपि स्मृतिहेतुत्वं संस्कारस्य व्यवस्थितम् ।
कार्यान्तरेऽपि सामर्थ्य न तस्य प्रतिहन्यते ॥ इति । तदेवं वर्णेभ्य एव संस्कारद्वारेणार्थप्रत्ययसम्भवादयुक्ता स्फोटकल्पनेति ।
से ऐसा ही निश्चय करना पड़ता है। मान लिया कि वह भावनात्य संस्कार है ( जिससे सामान्य नियम के अनुसार समानविषयक स्मृति ही हो सकती है) तथापि पदार्थबोध के साथ उसके अन्वय ( और व्यतिरेक ) से इस संस्कार में अर्थ को प्रतिपादन करने की शक्ति की कल्पना अयुक्त नहीं कही जा सकती। जो कोई स्फोट नाम की अतिरिक्त वस्तु को कल्पना करते हैं, उन्हें उस वस्तु की कल्पना और स्फोट नाम की उस वस्तु में अर्थबोध के सामर्थ्य की कल्पना, ये दो कल्पनायें करनी पड़ती हैं। स्फोट न माननेवाले को वर्णविषयक संस्कार में अर्थविषयक बोध के सामर्थ्यरूप धर्म की कल्पना करनी पड़ती है, क्योंकि वर्णविषयक संस्कार रूप धर्मी को तो दोनों पक्षों को मानना ही है । अतः लाघव की दृष्टि से भी वर्गों से ही अर्थविषयक बोध का मानना उचित है। जैसा कि न्यायवादियों ने ( भट्टकुमारिल ने) कहा है कि "यद्यपि यह निर्णीत है कि संस्कार स्मृति का कारण है, फिर भी उसमें दूसरे कार्य की शक्ति का निराकरण नहीं किया जा सकता" । तस्मात् वर्गों से ही उनके संस्कार रूप व्यापार के द्वारा अर्थबोध हो सकता है, अतः स्फोट की कल्पना अयुक्त है।
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