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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली शरीरधारणादिकं च न प्रतिषिद्धम् । तत्कुर्वन्नपि यदि संध्यया योगमभ्यस्यति को दोष इति चेत् ? न, तत्काले विहितस्यावश्यकर्त्तव्यताविधेरर्थात् केवलस्य शरीरधारणादे: करणं प्रतिषिद्धमिति । तदाचरतो भवत्येव प्रतिषिद्धाचरणनिमित्तः प्रत्यवायः । अथोच्यते । दीर्घकालादरनरन्तर्यसेवितभावनाहितविशदभावमात्मज्ञानमेव रागद्वेषौ मोहं च समूलकाषं कषद्विहिताकरणनिमित्तं प्रत्यवायमपि कषतीति चेत् ? तदयुक्तम् । यत्र ह्यभ्यासः प्रसीदति, तत्र तत्त्वग्रहो जातः संशयविपर्ययौ व्युदस्यति, न त्वस्य वस्त्वन्तरनिर्वहणे सामर्थ्य दृष्टपूर्वम् । यदि पुनरात्मज्ञानं कर्माणि निरुणद्धि उपारूढफलभोगमपि कर्म निरन्ध्यात्, ततः सुदूरं गता जीवन्मुक्तिः ? तत्त्वदर्शनानन्तरमेव विलीनाखिलकर्मणो देहपातात् । अस्ति चायं परमार्थदृष्टिनिरुद्धाखिलाविद्योऽपि चित्रलिखितमिवाभासमात्रेण सर्वं जगत् पश्यन्नेकत्राप्यनारूढाभिनिवेशः प्रारब्धफलं कर्मविशेषमुपभुञ्जानः कुलालव्यापारविगमे चक्रभ्रान्तिवत् संस्कारवशादनुवर्तमानस्य देहपातमुदीक्षमाणः । तथा च श्रुतिः
फिर विहिताकरण के समय शरीर धारण से प्रत्यवाय की उत्पत्ति क्यों कर होगी ? शरीरधारण करते हुए यदि संध्या वन्दन के समय कोई योग का ही अभ्यास करता है, तो उसे प्रत्यवाय क्यों होगा ? (प्र०) 'सन्ध्यावन्दन अवश्य करे' यह विधान है, इस विधान से ही इस प्रतिषेध का भी आक्षेप होता है कि उस समय केवल-शरीर का धारण न करे (सन्ध्यावन्दन से युक्त शरीर का ही धारण करे ) अतः उस समय केवल-शरीर का धारण प्रतिषिद्ध है । सुतराम् उससे प्रत्यवाय होना उचित है। यदि यह कहें कि (प्र.) दीर्घकाल से आदरपूर्वक किये गये अभ्यास के कारण आत्मा का विशद तत्त्वज्ञान जिस प्रकार राग, द्वेष, मोह प्रभृति को मूल सहित विनष्ट कर देता है, उसी प्रकार वही आत्मतत्त्वज्ञान विहित सन्ध्यावन्दनादि के न करने से होनेवाले प्रत्यवाय को भी विनष्ट कर देगा। । उ०) तो उक्त कथन भी सङ्गत नहीं होगा, क्योंकि उपयुक्त अभ्यास केवल विषयों के तत्त्व को ही पूर्ण रूप में समझा सकता है, जिससे उसमें जो संशय या विपर्यय रहता है, उसका विनाश हो जाय । अभ्यासजनित तत्त्वग्रह में यह सामर्थ्य कहीं उपलब्ध नहीं है कि किसी दूसरी वस्तु को भी वह उत्पन्न करे। यदि यह मान भी लें कि आत्मज्ञान से कर्मों का नाश होता है, तो फिर उससे सारे प्रारब्ध कर्मों का भी नाश हो जाएगा, जिससे जीवन्मुक्ति की बात ही छोड़ देनी पड़ेगी। क्योंकि तत्त्वज्ञान के बाद ही प्रारब्ध सहित सभी कर्मों का नाश हो जाएगा, जिससे कि आत्मज्ञान वाले पुरुष के शरीर का भी नाश हो जाएगा। किन्तु ऐसे महापुरुषों की सत्ता अवश्य है जिनको सभी अविद्यायें आत्मतत्त्वज्ञान से नष्ट हो चुकी हैं, जो सम्पूर्ण विश्व को चित्रलिखित आभासमात्र की तरह देखते हैं, किसी भी एक विषय में अभिनिवेश न रखकर, अपने प्रारब्ध को भोगते हुए संस्कार के कारण कुम्हार के चाक के भ्रमण की तरह देहपात की प्रतीक्षा करते हैं। जैसा श्रुति
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