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भ्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे धर्म
प्रशस्तपादभाष्यम् ज्ञानपूर्वकात्त कृतादसंकल्पितफलाद् विशुद्धे कुले जातस्य दुःखविगमोपायजिज्ञासोराचार्यमुपसङ्गाम्योत्पन्नषट्पदार्थतत्त्वज्ञानस्याज्ञाननिवृत्तौ विरक्तस्य रागद्वेषाद्यभावात् तज्जयोर्धर्माधर्मयोरनुत्पत्तौ
ज्ञानपूर्वक किये हुए निष्काम कर्मों के अनुष्ठान के द्वारा उत्पन्न धर्म से जीव विशुद्ध कुल में जन्म लेता है। इससे पुरुष को दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति के उपाय को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर वह आचार्य के चरणों में बैठकर उनसे षट् पदार्थों के तत्त्वज्ञान का लाभ करता है। जिससे अज्ञान निवृत्ति के द्वारा उसे वैराग्य
न्यायकन्दली
यस्य प्रकृष्टतमो धर्मस्तस्य प्रकृष्टतमानीति प्रतिपादयितुमाशयानुरूपैरिस्युक्तम् । इष्टशब्दः प्रत्येकं शरीरादिषु सम्बद्धयते, द्वन्द्वानन्तरं प्रयोगात् । तथा प्रकृष्टादधर्मात् प्रेतयोनीनां तियग्योनीनां च स्थानेष्वनिष्टः शरीरादिभिर्योगो भवति । प्रेतादिस्थानेऽपि मनाक् सुखमस्ति, तच्च धर्मस्य कार्यम्, अतः स्वल्पधर्मसहितादित्युक्तम् । उपसंहरति—एवमिति ।
एवं धर्मात् संसारं प्रतिपाद्यापवर्ग प्रतिपादयति-ज्ञानपूर्वकात् त्विति। "स्वरूपतश्चाहमुदासीनो बाह्याध्यात्मिकाश्च विषयाः सर्व एवैते दुःखसाधनम्" इति यस्य ज्ञानमभूत्, स दृष्टानुश्रविकविषयसुखवितृष्णः "एबमहं
होता है, उसे उस शरीर से भी अच्छा शरीर मिलता है, एवं जिसका धर्म इन दोनों प्रकार के धर्मो से उत्कृष्टतम रहता है, उसे तदनुरूप ही शरीर भी उत्कृष्टतम मिलता है । प्रकृत वाक्य का 'इष्ट' शब्द द्वन्द्वसमास के अन्त में प्रयुक्त है, अत: उसके पहिले के 'शरीरादि' प्रत्येक शब्द के साथ उसका अन्वय है। इसी प्रकार प्रकृष्ट अधर्म से प्रेत तिर्यग योनि के अनिष्ट शरीरादि के साथ आत्मा सम्बद्ध होता है। प्रेतलोक प्रभृति में भी थोड़ा सा सुख का सम्बन्ध है, एवं सुख धर्म से ही उत्पन्न होता है, अतः 'स्वल्पधर्मसहितात्' ऐसा लिखा गया है । 'एवम्' इत्यादि से इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं ।
इस प्रकार धर्म से संसार की उत्पत्ति का वर्णन कर 'ज्ञानपूर्वकात्त' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा धर्म से मोक्ष की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं। "मैं वस्तुतः अपने यथार्थरूप में उदासीन हूँ, एवं बाह्य और अभ्यन्तर जितने भी विषय है, वे सभी दुःख के ही साधन है" इस प्रकार का ज्ञान जिस पुरुष को हो जाता है वह 'दृष्ट' चन्दनवनितादि जनित सुखों से एवं 'आनुश्रविक' स्वर्गादि सुखों की तष्णा से निवत्त
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