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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
६७६ प्रशस्तपादभाष्यम् सहितात् प्रेततिर्यग्योनिस्थानेष्वनिष्टशरीरेन्द्रिय विषयदुःखादिभिर्योगो भवति । एवं प्रवृत्तिलक्षणाद् धर्मादधर्मसहिताद् देवमनुष्यतिर्यनारकेषु पुनः पुनः संसारचन्धो भवति । धर्म से युक्त बड़े अधर्म से प्रेत, तिर्यग्योनि में भोग के उपयुक्त शरीर, इन्द्रिय, विषय और दु:ख के साथ ( उक्त पुरुष ) का सम्बन्ध होता है। इसी प्रकार थोड़े से अधर्म से युक्त प्रवृत्तिस्वरूप धर्म के द्वारा देव तिर्यग्योनि एवं नारकीय शरीरों के सम्बन्ध से जीव को बारबार संसार रूप बन्धन मिलता है।
न्यायकन्दलो एवमधर्मस्य साधनमभिधाय संप्रति साध्यं कथयति-- अविदुष इत्यादिना। यः कर्ता भोक्तारतीत्यात्मानमभिमन्यते, परमार्थतो दुःखसाधनं च बाह्याध्यात्मिकविषयं सुखसाधनमित्यभिमन्यते सोऽविद्वान् । स च स्वोपभोगतृष्णापरिप्लतः सुखसाधनत्वारोपिते विषये रज्यते, तदुपरोधिनि च द्विष्टो भवति । तस्य प्रवर्तकाद् धर्माद् देवो वा स्यां गन्धर्वो वा स्यामिति पुनर्भवप्रार्थनया कृताद् धर्मात् प्रकृष्टात् फलातिशयहेतोराशयानुरूपैः कर्मानुरूपरिष्टशरीरादिभिः सम्बन्धो भवति, ब्रह्मन्द्रादिस्थानेऽपि मात्रया दुःखसम्भेदोऽस्ति। न चाधर्मादन्यद् दुःखसंवेदोऽस्ति । न चाधर्मादन्यद् दुःखस्य कारणमतः स्वल्पाधर्मसहितादित्युक्तम्। यस्य प्रकृष्टो धर्मस्तस्य प्रकृष्टानि शरीरादीनि भवन्ति, यस्य प्रकृष्टतरो धर्मः, तस्य प्रकृष्टतराणि भवन्ति,
उक्त सन्दर्भ के द्वारा अधर्म के साधनों को कहने के बाद 'अविदुष' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अधर्म से होनेवाले कार्यों का निरूपण करते हैं। 'अविद्वान्' उस ( मूढ़) पुरुष को कहते हैं, जो अपने को हो कर्ता और भोक्ता समझता है, एवं दुःखों के बाह्य एवं आन्तरिक साधनों को सुखों का साधन समझता है । वह ( अविद्वान् पुरुष ) अपनी उपभोग की तृष्णा के वशीभूत होकर दुःख के जिन साधनों को सुख का साधन समझता है, उन विषयों में अनुरक्त हो जाता है, और उसके विरोधी विषयों के साथ द्वेष रखने लगता है । 'प्रवर्तकाद्धर्मात्' अर्थात् 'मैं देव हो जाऊ, मैं गन्धर्व हो जाऊं इस प्रकार की हेतुभूत पुनर्जन्म की वासना से किये गये प्रवर्तक एवं उत्कृष्ट फलों के हेतु उत्कृष्ट धर्म के द्वारा ( कुछ अधर्म की सहायता से ) आशय के अनुरूप अर्थात् पहिले किए हुए कर्म के अनुरूप अभीष्ट शरीरादि के साथ वह जीव सम्बद्ध होता है । ब्रह्मा प्रभृति के शरीर धारण करने पर भी थोड़ा सा दुःख का सम्बन्ध रहता ही है । बिना अधर्म के दुःख का अनुभव नहीं होता, एवं अधर्म को छोड़कर दुःख का भी कोई दूसरा ( असाधारण ) कारण नहीं है, अतः 'स्वल्याधर्मसहितात्' यह वाक्य जोड़ा गया है । 'आशयानुरूपैः' यह वाक्य इस तारतम्य को समझाने के लिए लिखा गया है कि जिसका धर्म उत्कृष्ट रहता है. उसे उत्कृष्ट शरीर मिलता है, जिसका धर्म उससे उत्कृष्टतर
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