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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
६७७
प्रशस्तपादभाष्यम् अधर्मोऽप्यात्मगुणः । कर्तुरहितप्रत्यवायहेतुरतीन्द्रियोऽन्त्यदुःखसंविज्ञान विरोधी। तस्य तु साधनानि शास्त्रे प्रतिषिद्धानि
अधर्म भी आत्मा का ही गुण है । वह (अधर्माचरण करनेवाले ) कर्ता के दुःख और दुःख के साधनों का कारण है। वह अतीन्द्रिय है। एवं अन्तिम दुःख और तत्वज्ञान इन दोनों से उसका नाश होता है। शास्त्रों में निषिद्ध
न्यायकन्दली तेन तत्त्वज्ञानेन सता निवृत्तप्रसवां निवृत्तोपभोगजननसामर्थ्याज् ज्ञानधर्मवैराग्यैश्वर्याधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्येभ्यः सप्तरूपेभ्यो विनिवृत्तां प्रकृति पुरुषः प्रेक्षकवदुदासीनः स्वस्थो रजस्तमोवृत्तिकलुषतया बुद्धया असम्भिन्नः पश्यतीत्यर्थः । यद्यप्यनादिरियं मोहवासना आदिमांश्च तत्त्वसाक्षात्कारः, तथाप्यनेन सा निरुद्धचते, तत्त्वावग्रहो हि धियां परमं बलम् ।
___ अधर्मोऽप्यात्मगुणः । न केवलं धर्मोऽधर्मोऽप्यात्मगुणः । कर्तुरिति । कर्तुरहितं दुःखसाधनम्, प्रत्यवायो दुःखम्, तयोरधर्मों हेतुः। अन्त्यदुःखसंविज्ञानेति । अन्त्यस्य दुःखस्य सम्यग विज्ञानं तेन विनाश्यते। तस्य साधनानि शास्त्रे प्रतिषिद्धानि धर्मसाधनविपरीतानि हिंसानृतस्तेयादीनि। हिंसा परारहने पर भी आत्मा को वे छू नहीं सकते । जैसा सांख्यशास्त्र के आचार्यों ने 'तेन निवृत्तप्रसवाम्' इत्यादि आर्या के द्वारा कहा है कि-'तेन' अर्थात् उस तत्त्वज्ञान से 'निवृत्तप्रसवाम्' उपभोग के सामर्थ्य से रहित प्रकृति 'अर्थवशात्' पुरुष के अपवर्ग रूप प्रयोजन से वशीभूत होकर 'सप्तरूप विनिवृत्ति' को प्राप्त होती है, अर्थात् ज्ञान अज्ञान, धर्म, अधर्म, वैराग्य, अवैराग्य, ऐश्वर्य और अनैश्वर्य इन अष्टविध भावों में से ज्ञान को छोड़कर सृष्टिजनक अज्ञानादि सातों प्रकार के भावों से निवृत्त हो जाती है। इसी प्रकार की प्रकृति को 'पुरुष' प्रेक्षक की तरह अर्थात् उदासीन को तरह 'स्वस्थ' होकर अर्थात् रजोगुण और तमोगुण की कलुषित वृत्तियों से सर्वथा असम्बद्ध रहकर देखता है । यद्यपि यह ठोक सा लगता है कि मिथ्याज्ञानरूप मोहरूप वासना अनादि है, और तत्त्वज्ञान उत्पत्तिशील है, (अतः वासना ही बलवती है) फिर भी सादि भी तत्त्वज्ञान से अनादि मिथ्याज्ञान का नाश होता है, क्योंकि तत्त्व का ग्रहण करना हो ज्ञानों का सबसे बड़ा बल है।
'अधर्मोप्यात्मगुण:' अर्थात् केवल धर्म ही आत्मा का गुण नहीं है, किन्तु अधर्म भी आत्मा का गुण है ( इसी अर्थ की अभिव्यक्ति प्रकृत वाक्य के 'अपि' शब्द से हुई है)। 'कर्तुरिति' कर्ता का जो 'अहित' अर्थात् दुःख का साधन एवं प्रत्यवाय अर्थात् दुःख, अधर्म इन दोनों का 'हेतु' है । 'अन्त्यदुःखसंविज्ञानेति' अन्त्य अर्थात् अन्तिम दुःख और 'संविज्ञान' अर्थात् सम्यग्विज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान इन दोनों से अधर्म का विनाश होता है। 'तस्य तु साधनानि शास्त्रे प्रतिषिद्धानि धर्मसाधनविपरीतानि हिंसानृतस्तेयादीनि' दूसरों के
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