Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 739
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६६४ www.kobatirth.org न्यायकन्दलीसंवलितप्रशास्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गुणनिरूपणे धर्म यस्य यथालक्षणया प्रीतिसाधने प्रयोगः प्रीतिमात्राभिधानेऽपि तस्मात् प्रीतिसाधनप्रतीत्युत्पत्तेरुभयाभिधानशक्तिकल्पनावयर्थ्यात् । एवं धर्मशब्दस्यापि लक्षणया तत्साधने प्रयोगः, एकाभिधानादेवोभयप्रतीतिसिद्धेरुभयाभिधानशक्तिकल्पनानवकाशादिति तार्किकाणां प्रक्रिया | अतीन्द्रियः केनचिदिन्द्रियेणायोगिभिर्न गृह्यत इत्यतीन्द्रियो धर्मः । अन्त्यसुखसं विज्ञानविरोधी । धर्मस्तावत् कार्यत्वादवश्यं विनाशी, न च निर्हेतुको विनाशः कस्यचिद् विद्यते । अन्यतस्ततो विनाशे चास्य नियमेन फलोत्पत्तिकालं यावदवस्थानं न स्यात् । फलं च धर्मस्य कस्यचिदनेकसंवत्सर सहस्रोपभोग्यम्, तस्य यदि प्रथमोपभोगादपि नाशः, कालान्तरे फलानुत्पादः । न चैकस्य निर्भागस्य भागशो नाशः सम्भाव्यते, तस्मादन्त्यस्यैव । सम्यग्विज्ञानेन धर्मो विनाश्यते । ये तु वनितादि साधनों में 'स्वर्ग' शब्द का प्रयोग किया जाता है । स्वर्ग के साघनीभूत अपूर्व के लिए विहित ज्योतिष्टोमादि क्रियाओं का जो धर्मशब्द से नियमित व्यवहार होता है, वह उसका स्तुति रूप अर्थवाद है । एवं चन्दनादि साधनों में जब प्रीति का सम्बन्ध रहता है तभी 'स्वर्ग' शब्द का प्रयोग होता है, जब जिसे उन साधनों से ख नहीं मिलता है, तब उससे चन्दनादि में स्वर्गशब्द का प्रयोग नहीं होता । अतः यही समझना चाहिए कि प्रीति के साधनों में स्वर्गशब्द लाक्षणिक है, और प्रीति में ही उसकी अभिधा शक्ति है । क्योंकि प्रीति और उसके साधन इन दोनों में स्वर्गशब्द की अभिधा की कल्पना व्यर्थ है । इसी प्रकार धर्म के ज्योतिष्टोमादि साधनों में धर्मशब्द का प्रयोग लक्षणा के द्वारा ही होता है । क्योंकि धर्म को अपूर्वरूप एक ही अर्थ में अभिधा मान लेने से ही अपूर्वरूप उसके मुख्यार्थं का और ज्योतिष्टोमादि रूप लक्ष्यार्थं दोनों के बोध की उपपत्ति हो जाएगी । अपूर्व में और अपूर्व के कारण ज्योतिष्टोमादि, दोनों में धर्म शब्द की अभिधा शक्ति की कल्पना व्यर्थ है । यहीं तार्किक लोगों की रीति है । For Private And Personal 'अतीन्द्रियः' अर्थात् योगियों से भिन्न कोई भी साधारण पुरुष धर्म को किसी भी इन्द्रिय से नहीं देख सकता, अतः धर्म अतीन्द्रिय' है । 'अन्त्य सुखसं विज्ञान विरोधी' धर्म यतः उत्पत्तिशील वस्तु है, अतः वह विनाशशील भी है । किन्तु कोई भी विनाश बिना किसी कारण के नहीं होता । यदि अन्त्यसुख और संविज्ञान इन दोनों से भिन्न किसी से धर्म का विनाश मानें तो नियमपूर्वक स्वर्गादि फलों की उत्पत्ति से पहिले तक उसकी सत्ता नहीं रह सकेगी। ( यदि किसी भी उपभोग से धर्म का विनाश मानें तो ) किसी किसी धर्म के फल का उपभोग हजारों साल चलता है, अतः उनमें पहिले उपभोग से ही उसका विनाश हो जाएगा, आगे उससे उपभोग ही रुक जाएगा। यह भी सम्भव नहीं है कि एक अखण्ड वस्तु में उसके किसी एक भाग का विनाश हो ( और अवशिष्ट भाग बचा रहे ), तस्मात् अन्तिम सुख हो धर्म का नाशक

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