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प्रकरणम्
६७१
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
गृहस्थस्य धर्मसाधनम् । भूतेभ्यो बलिदानं भूत यज्ञ: । अतिथिपूजन मनुष्ययज्ञः। होमो देवयज्ञ.। श्राद्धं पितृयज्ञः । ब्रह्मयज्ञो वेदपाठः । एकाग्निविधानेन पाकयज्ञसं थानामिति । अनुष्ठानम्। एकाग्निरिति औपासनिकः । तस्य विधानं विवाहकाले परिग्रह. । तेन पाकयज्ञसंस्थानां पाकयज्ञविशेषाणामष्टकापार्वणीचेत्र्याश्वयुज्यादीनां नित्यानामवश्यकरणीयानां सति सामर्थ्यऽनुष्ठानम् । अग्न्याधेयादीनामिति अनुष्ठानं धर्मसाधनम्, अग्न्याधेयशब्देनान्याधानस्याभिधानम्, यद् ब्राह्मणेन सन्ते क्रियते। हविर्यज्ञसंस्था हविर्यज्ञविशेषा दार्शपौर्णमासचातुर्मास्याग्रायणादिका इष्टयः कथ्यन्ते। अग्निष्टोमादीति अग्निष्टोमोक्थ्यषोडशीवाजपेयातिरात्राप्तोर्यामाः सप्तसोमयज्ञविशेषाः सोमयज्ञसंस्था उच्यन्ते। ऋत्वन्तरेष्विति। ऋतुकालादन्यकालेषु ब्रह्मचर्य व्रतरूपेण स्त्रीसेवापरिवर्जनं धर्मपाधनम् : अपत्योत्पादनमपि धर्मसाधनम्, पुत्रेण लोकाञ्जयतीति श्रुतेः ।
दूसरों से प्रतिग्रह न लेकर बारी-बा। से प्रत्येक आंगन में भिक्षा मांगने को ‘यायावरवृत्ति' कहते हैं। इन दोनों वृत्तियों से ही उपाजित धन के द्वार। सायङ्काल, प्रात काल और अपराल काल में पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान गृहस्थों के लिए धर्म का साधन है। काकादि प्राणियों के लिए बलि देने को 'भूतयज्ञ' कहते हैं। अतिथियों की पूजा को ही 'मनुष्य यज्ञ' कहते हैं। होम ही 'देवयज्ञ' है । श्राद्ध को 'पितृयज्ञ कहते हैं। वदो का पाठ ही 'ब्रह्मयज्ञ' है । 'एकाग्निविधानेन पाकयज्ञसंस्थानाम्' अर्थात् इनके अनुष्ठान भी गृहस्थों के धर्म के साधन हैं । 'एकाग्नि' शब्द से औपासनिक अग्नि को समझना चाहिए. जिसका ग्रहण विवाह के समय किया जाता है। उस अग्नि के द्वारा 'पाकयज्ञसंस्था' के होमों का अर्थात् अष्टका, पार्वणी, चैत्र्य , एवं आश्वयुज्। प्रभृति नित्यकर्मों का अर्थात् अवश्य करणीय कर्मों का सामर्थ्य रहने पर जो अनुष्ठान । वे धर्म के साधन हैं ), 'अग्न्य धेयादीनाम्' अर्थात् अग्न्याधेयादि के अनुष्ठान भी गृहस्थों के धर्म के साधन हैं । 'अग्न्याधेय' शब्द से अग्नि का आधान समझना चाहिए. जो वसन्त क समय ब्राह्मणों के द्वारा अनुष्ठित होता है। 'हविर्यज्ञसंस्था' शब्द से विशेष प्रकार के दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य, आग्नायण प्रभृति इष्टि याँ कही जाती है। 'अग्निष्टोमादीति अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोड़शी, वाजपेय, अति रात्र और आप्तोर्याम ये सात विशेष प्रकार के सात सोमयज्ञ ही 'सोमयज्ञसंस्था' कहलाते हैं । अत्यन्तरेषु' स्त्री के ऋतुकाल से भिन्न समय में व्रतरूप से 'ब्रह्मचर्य' का अर्थात् स्त्रीसङ्ग का त्याग भी धर्म का साधन है। पुत्र को उत्पन्न करना भी धर्म का साधन है, क्योकि 'पुत्रेण लोकान् जयति' यह श्रुति है ।
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