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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् शूद्रस्य पूर्ववर्णपारतन्त्र्यममन्त्रिकाश्च क्रियाः।
आश्रमिणां तु ब्रह्मचारिणो गुरुकुलनिवासिनः स्वशास्त्रविहितानि गुरुशुश्रूषाग्नीन्धनभैक्ष्याचरणानि मधुमांसदिवास्वप्नाञ्ज. नाभ्यञ्जनादिवर्जनं च ।
कथित तीनों वर्गों की पराधीनता, एवं बिना मन्त्र की क्रिया, ये शूद्रों के विशेष धर्म के सान हैं।
आश्रमियों में गुरुकुलनिवासी ब्रह्मचारियों के लिए शास्त्रों में विहित गुरु और अग्नि की सेवा, ( होम के लिए ) लकड़ी लाना, भिक्षा माँगना, एवं मधु, मांस, दिन की निद्रा, अञ्जन और अभ्यङ्ग ( मालिश), इन सबों को छोड़ना ( ये सभी ) उनक विशेष ( असाधारण ) धर्म के साधन हैं।
न्यायकन्दली आश्रमिणां तु धर्मसाधनमुच्यते । ब्रह्मचारिणो गुरुकुलनिवासिन इति । उपनीय यः शिष्यं साङ्ग सरहस्यं च वेदमध्यापयति स गुरुः, तस्य कुले गृहे वसनशीलस्य ब्रह्मचारिणः स्वशास्त्रविहितानि ब्रह्मचारिणमधिकृत्य शास्त्रण विहितानि। गुरुशुश्रूषा गुरोः परिचर्या, गुरुशुश्रूषा च अग्निश्चेन्धनं च भक्ष्यं च तेषामाचरणानि। गुरुशुश्रूषाभक्ष्ययोः करणमेवाचरणम् । अग्नेराचरणम्, प्रत्यहमग्नौ होमः, इन्धनस्याचरणमग्न्यथं वनादिन्धनस्याहरणमिति विवेकः ।
गहस्थस्य धर्मसाधनं कथयति--विद्यावतस्नातकस्येति । यो वेदा
'ब्रह्मचारिणो गुरुकुलनिवासिनः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वार। अब आश्रमियों के धर्म का साधन कहते हैं । यहाँ 'गुरु' शब्द से उस विशिः पुरुष को समझना चाहिए जो शिष्य का उपनयन संस्कार कर कर अङ्गों सहित वेदों के रहस्य को समझावें । ऐसे 'गुरु' के गृह में सम्पूर्ण अध्ययनकाल तक नियमतः निवास कर अध्ययन करनेवाले 'ब्रह्मचारी' के लिए 'स्वशास्त्रविहितानि' अर्थात् विशेषकर ब्रह्मचारी के लिए ही शास्त्रों में विहित ( जो 'गुरुशुश्रूषादि' ) । 'गुरुशुश्रूषाग्नीन्धनभैक्ष्याचरणानि' यह वाक्य 'गुरुशुश्रूषा च अग्निश्चेन्धनञ्च भैक्ष्यं च तेषामाचरणानि' इस प्रकार की व्युत्पत्ति से सिद्ध है । गुरु की शुश्रूषा ( सेवा ) करना ही गुरुशुश्रूषा का आचरण है। भिक्षा माँगता ही भिक्षाचरण है। प्रतिदिन अग्नि में होम करना ही अग्नि का आचरण है। होम के लिए वन से लकड़ी लाना ही इन्धनाचरण है। इस प्रकार का विभाग प्रकृत में जानना चाहिए।
'विद्याव्रतस्नातकस्य' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा गृहस्थाश्रमी के लिए जो धर्म के साधन हैं, वे कहे गये हैं। 'विद्यावतस्नातक' शब्द से वे पुरुष अभिप्रेत हैं, जिन्होंने
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