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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे धर्म
प्रशस्तपादभाष्यम् विद्याव्रतस्नातकस्य कृतदारस्य गृहस्थस्य शालीनयायावरवृत्त्युपार्जितैरथैर्भूतमनुष्यदेवपितृब्रह्मालानां पञ्चानां महायज्ञानां सायम्प्रातरनुष्ठानम् ; एकाग्निविधानेन पाकयज्ञसंस्थानां च नित्यानां शक्तौ विद्यमानायामग्न्याधयादीनां च हवियज्ञसंस्थानामग्निष्टोमादीनां सोमयज्ञसंस्थानां च । ऋत्वन्तरेषु ब्रह्मचर्यमपत्योत्पादनं च ।
शालीनवृत्ति एवं यायावरवृत्ति के द्वारा उपाजित धन से प्रातःकाल और सायंकाल भूतयज्ञ ( काकादि प्राणियों के लिए अन्न उत्सर्ग करना ), मनुष्ययज्ञ ( अतिथिसेवा ), देवयज्ञ ( होम ), पितृयज्ञ ( नित्य श्राद्ध ), ब्रह्मयज्ञ ( वेदपाठ ) एवं सामर्थ्य के रहने पर एकाग्निविधान ( विवाह के समय गृहीत अग्नि ) से पाकयज्ञसंस्थाओं ( अष्टका, पार्वणी, चैत्र्य, आश्वयुज्य प्रभृति ) का अनुष्ठान, अग्निहोत्र एवं विशेष प्रकार के हविर्यज्ञ संस्था के ( दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य, एवं आग्रयण प्रभृति ) इष्टियों का, सोमयज्ञ संस्था के । अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिराव एवं आप्तोर्याम ) यज्ञों का अनुष्ठान एवं ( पत्नी के ) ऋतुकाल से भिन्न समय में ब्रह्मचर्य का पालन एवं पुत्र का उत्पादन, ये सभी विद्याव्रतस्नातक ( वेदाध्ययन के लिए स्वीकार किये गये व्रतों को अध्ययन के समाप्त हो जाने के कारण छोड़ देनेवाले ) विवाहित गृहस्थों के विशेष धर्म के साधन हैं।
न्यायकन्दली ध्ययनार्थं गृहीतं व्रतमधीते वेदे विजितवान् स विद्याव्रतस्नातकः, तस्य कृतदारस्य कृतपत्नोपरिग्रहस्य गृहस्थस्य शालीनयायावरवृत्त्युपार्जितैरथैर्भूतमनुष्यदेवपितृब्रह्माख्यानां पञ्चानां महायज्ञानां सायं प्रातरनुष्ठानम् । यावता धान्येन कुशूलपात्रं कुम्भीपात्रं वा परिपूर्यते, व्यहमेकाहं वा वर्तनं भवति, तावन्मात्रस्य परेण स्वयनानीयमानस्य श्रद्धया दीयमानस्य यः परिग्रहः सा शालीना वृत्तिः । परस्मादप्रतिग्रहगतश्चक्रमादाय यत् प्रत्यङ्गनं भिक्षाटनं सा यायावरवृत्तिः । ताभ्यामुपाजितैरर्थः पञ्चानां महायज्ञानां सायं प्रातरपराले चानुष्ठानं वेदाध्ययन का व्रत लिया हो, एवं वेदाध्ययन के सम्पन्न हो जाने पर ही उसकी समाप्ति की हो। वे ही जब 'कृतदार' हो जाँय अर्थात् विवाह कर लें, ऐसे गृहस्थों के लिए ही जो धर्म के साधन हैं, वे 'शालोनयायावर इत्यादि सन्दर्भ से गिनाये गये हैं। जितने अन्न से एक कुशूलपात्र ( कच्ची मिट्टी की कोठी ) या एक घड़ा भर जाय, अथवा तीन दिनों तक या एक ही दिन का भोजन चल सके, उतने ही अन्न को स्वयं ले आने पर या श्रद्धापूर्वक दूसरों के देने पर जो ग्रहण किया जाता है, उस वृत्ति को 'शालीना वृत्ति' कहते हैं।
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