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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली अतिथिशेषभोजनं च धर्मसाधनम्। यः प्राजापत्यामिष्टि निरूप्य सर्वस्वं दक्षिणां दत्त्वात्मन्यग्नि समाधाय पुत्रे भार्या निक्षिप्य प्रवजितः, न तस्य होमो न तस्यातिथिपरिग्रहः। यस्तु सह पत्न्या सहैवाग्निना वनं प्रस्थितः, तस्य हुतशेषभोजनमतिथिशेषभोजनं च धर्मसाधनम्।
यतिधर्म निरूपति- त्रयाणामिति । यत्याश्रमपरिग्रहेऽपि नियमो नास्ति, श्रद्धोपगमे सति ब्रह्मचार्यव यतिर्भवति, गृहस्थो वा भवति, वानप्रस्थो वेत्यनेनाभिप्रायेणोक्तं त्रयाणामन्यतमस्येति । श्रद्धावतः चित्तप्रसादवतः सर्वभूतेभ्यो नित्यमभयं दत्त्वा भूतानि मया न जातु हिसितव्यानोति अद्रोहसङ्कल्पं गृहीत्वा, स्वानि कर्माणि काम्यानि संन्यस्य परित्यज्य यमनियमेष्वप्रमत्तस्य । अहिंसा-सत्यादयो यमाः । यथाह भगवान् पतञ्जलिः-अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा इति । तपः शौचादयस्तु नियमाः। यथाह स एव भगवान्-शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा इति। न्यायभाष्यकारस्तु प्रत्याश्रमं विशिष्टं धर्मसाधननियममाह। तेष्वप्रमत्तस्य ताननतिक्रमतः। षट्पदार्थप्रस्थियों के ) धर्म के साधन हैं । जो गृहस्थ प्राजापत्य नाम की इष्टि करके अपने सर्वस्व को दक्षिणा रूप में देकर एवं पत्नी का भार पुत्र को सौंप कर वानप्रस्थ को ग्रहण करते हैं उनके लिए होम और अतिथि की सेवा निर्दिष्ट नहीं हैं ( अतः उनके लिए ये दोनों धर्म के साधन नहीं हैं )। जो पत्नी और अग्नि को साथ लेकर ही वानप्रस्थाश्रम को ग्रहण करते हैं, उनके लिए ही होम से बचे हुए हवि का भोजन और अतिथि से बचे हुए अन्न का भोजन ये दोनों धर्म के साधन हैं।
'त्रयाणाम्' इत्यादि ग्रन्थ से यतियों ( संन्यासियों ) के धर्म का निरूपण करते हैं । सन्यासाश्रम ग्रहण करने का भी कोई नियम नहीं है (कि किस आश्रम से संन्यास ग्रहण करे ) क्योंकि उपयुक्त श्रद्धा के रहने पर ब्रह्मचारी और गृहस्थ ये दोनों ही संन्यास ले सकते हैं। वानप्रस्थाश्रमी तो ले ही सकते हैं, इसी नियम को दृष्टि में रखकर लिखा गया है कि 'प्रयाणामन्यतमस्य'। 'श्रद्धावतः' चित्त प्रसाद से युक्त पुरुष के लिए 'सर्वभूतेभ्यो नित्यमभयं दत्त्वा' अर्थात् मुझसे किसी प्राणी की हिंसा न हो' इस प्रकार से अद्रोह का संकल्प करके 'स्वानि कर्माणि' अर्थात् अपने काम्य कर्मों को 'संन्यस्य' अर्थात् छोड़कर, 'यमनियमेष्वप्रमत्तस्य' इनमें अहिंसा सत्य प्रभृति 'यम' कहलाते हैं । जैसा कि भगवान् पतञ्जलि ने कहा है कि :-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ( ये पांच ) 'यम' हैं । प्रकृत में 'नियम' शब्द से तपस्या शौंच प्रभृति इष्ट है। जैसा कि भगवान् पतञ्जलि ने ही कहा है कि-शौच सन्तोष तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वर का प्रणिधान (ये पाँच ) 'नियम' हैं । न्यायभाष्यकार ने प्रत्येक आश्रम के लिए निर्दिष्ट धर्म के नियमित अनुष्ठान को ही मियम बतलाया है। 'तेष्बप्रमत्तस्य' अर्थात् यम और नियम के विरुद्ध आचरण न करनेवाले
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