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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
६५९ प्रशस्तपादभाष्यम् दिषु भुग्नसंवर्तितेषु स्थितिस्थापकस्य कार्य संलक्ष्यते। नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयोऽस्यापि गुरुत्ववत् । कार्यरूप धनुष, शाखा, शृङ्ग, दाँत, अस्थि, सूत्र एवं वस्त्र प्रभृति वस्तुओं को सीधा होने पर लक्षित होता है। गुरुत्व के सदृश ही इसके नित्यत्व और अनित्यत्व के प्रसङ्ग में भी जानना चाहिए।
न्यायकन्दली माख्यातं तुशब्दः। ये घना निविडा अवयवसन्निवेशाः तैविशिष्टेषु स्पर्शवत्सु द्रव्येषु वर्तमानः स्थितिस्थापकः स्वाश्रयमन्यथाकृतमवनामितं यथावत् स्थापयति पूर्ववदुजं करोति। ये प्रत्यक्षतोऽनुपलम्भात् स्थितिस्थापकस्याभावमिच्छन्ति तान् प्रति तस्य कार्येण सद्भावं दर्शयन्नाह-स्थावरजङ्गमविकारेष्विति । भुग्नाः कुब्जीकृताः संवर्तिताः पूर्वावस्था प्रापिताः, भुग्नाश्च ते संवर्तिताश्चेति भुग्नसंवर्तिताः, तेषु स्थितिस्थापकस्य कार्य लक्ष्यते। किमुक्तं स्यात् ? धनु:शाखादिष्ववनामितविमुक्तेषु यत् पूर्वावस्थाप्राप्तिहेतोराद्यस्य कर्मणः एकार्थसमवेतमसमवायिकारणं स स्थितिस्थापक: संस्कारः, अन्यस्यासम्भवात् । अन्ये तु भुग्नसंवर्तितेष्विति सूत्रवस्त्रादिष्विति अस्येदं विशेषणमिति मन्यमाना भुग्नानि संस्कार स्पर्श से युक्त द्रव्यों का गुण है, आश्रयों के ( अस्पर्शवत्व और स्पर्शवत्त्व ) इन दोनों अन्तर के द्वारा दोनों संस्कारों में अन्तर दिखलाने के लिए प्रकृत सन्दर्भ में 'तु' शब्द का प्रयोग किया गया है। अवयवों के 'घन' अर्थात् कठिन संनिवेशयुक्त स्पर्शवाले द्रव्य में विद्यमान 'स्थितिस्थापक' संस्कार 'अन्यथा कृत' अर्थात् नमाये हुए अपने आश्रयभूत द्रव्य को 'यथावत्स्थापन' अर्थात् पहिले की तरह सीधा कर देता है। जो समुदाय प्रत्यक्ष न होने के कारण 'स्थितिस्थापक' संस्कार को मानना ही नहीं चाहते, उन्हें कार्यहेतुक अनुमान के द्वारा स्थितिस्थापक संस्कार की सत्ता को समझाने के लिए ही 'स्थावरजङ्गमविकारेषु' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है। 'भुग्न' शब्द का अर्थ है टेढ़ा किया हुआ (तिर्यक्कृत), और संवत्तित' शब्द का अर्थ है पहिली अवस्था को प्राप्त । प्रकृत सन्दर्भ का भुग्नसंवत्तितेषु' पद 'भुग्नाश्च ते संवर्तिताश्च भुग्नसंवत्तिताः, तेषु' इस प्रकार के समास से निष्पन्न है। इस शब्द के द्वारा स्थितिस्थापक संस्कार से उत्पन्न कार्य दिखलाये गये हैं। इससे फलितार्थ क्या निकला ? यही कि धनुष या वृक्ष की डोल प्रभृति जब अवनमित होकर फिर जिन क्रियाओं के द्वारा पहिली अवस्था को प्राप्त होते हैं, उन क्रियाओं में से पहिली क्रिया का असमवायिकारण एवं उस क्रिया के साथ ( उसके आश्रय रूप ) एक अर्थ में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला संस्कार ही स्थितिस्थापक संस्कार' है। क्योंकि अवनमित शाखादि की पुनः पूर्वावस्था की प्राप्ति का कोई दूसरा कारण नहीं हो सकता। कुछ अन्य लोग इस सन्दर्भ के 'भुग्नसंवत्तितेषु' इस पद को इसी सन्दर्भ के 'सूत्रवस्त्रादिषु' इसका विशेषण
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