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न्यायकन्दली संचलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
पूर्वगृहीते । पूर्वेत्यादि । यतः सुचिरमनुवर्तते, स्फुटतरं च स्मरणं करोति । न ह्याद्यानुभव एव संस्कारविशेषमाधत्ते, प्रथमं तदर्थस्मरणाभावात् । नाप्युत्तर एव हेतु:, पूर्वाभ्यासवैयर्थ्यात् । तस्मात् पूर्वसंस्कारापेक्षोत्तरोत्तरानुभवाहिताधिकाधिक संस्कारोत्पत्तिक्रमेणोपान्त्यसंस्कारापेक्षादन्त्यानुभवात् तदुत्पत्तिः ।
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[ गुणनिरूपणे संस्कार
इदं त्विह निरूप्यते । विद्यायामभ्यस्यमानायां किं तदर्थो वाक्येन प्रतिपाद्यते ? किं वा स्फोटेन ? कुतः संशयः ? विप्रतिपत्तेः । एके वदन्ति स्फोटोर्थं प्रतिपादयतीति । अपरे त्याहुर्वाक्यं प्रत्यायकमिति । अतो युक्तः संशयः । किं तावत्प्राप्तम् ? स्फोटोऽर्थप्रत्यायक इति । यदि हि वर्णानतिरिक्तं पदम् पदानतिरिक्तं च वाक्यम्, तदार्थप्रत्यय एव न स्यादिति । तथा हि न वर्णाः प्रत्येकमर्थविषयां धियमाविर्भावयन्ति, शेषवर्णवैयर्थ्यात् । समुदायश्च तेषां न सम्भवति, अन्त्यवर्णग्रहणसमये पूर्वेषामसम्भवात् । नित्यत्वाद् वर्णानामस्ति समुदाय इति चेत् ? तथापि न तेषां प्रतीतिरनुवर्तते, अप्रतीयमानानां च प्रत्यायकत्वे सर्वदार्थप्रतीतिप्रसङ्गः । नहि प्रतीत्य अप्रतीयमानानां सर्वथा अप्रतीयमानानां च कश्चिद् विशेषः । पूर्वावगता वर्णाः स्मृत्यारूढाः प्रतीतिहेतव
तक रहता है, एवं अत्यन्त स्पष्ट स्मृति का उत्पादन करता है । पहिले बार के ही अनुभव से विशिष्ट संस्कार की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि उस संस्कार से स्मृति की उत्पत्ति नहीं होती हैं। केवल आगे के अनुभव ही संस्कार के उत्पादक नहीं हैं, क्योंकि ( ऐसा मानने पर ) पहिले के सभी अभ्यास व्यर्थ हो जाएँगे । 'तस्मात् ' पूर्व संस्कार से युक्त आत्मा में आगे के अनुभवों से संस्कारों की उत्पत्तिको धारा चलती है, इस प्रकार उपान्त्य ( अर्थात् अन्तिम संस्कार से अव्यवहितपूर्व वृत्ति) संस्कार की सहायता से अन्तिम अनुभव के द्वारा विशिष्ट संस्कार की उत्पत्ति होती है ।
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इस प्रसङ्ग में इस विषय का विचार उठाता हूँ कि शास्त्र या आगम रूप कथित विद्या के अभ्यास से जो उनके अर्थों का प्रतिपादन होता है, वह वाक्य से उत्पन्न होता है ? या स्फोट से उत्पन्न होता है ? ( प्र० ) यह संशय ही उपस्थित क्यों हुआ ? ( उ० ) परस्पर विरोधी मतों के कारण संशय उपस्थित होता है । किसी सम्प्रदाय के लोग कहते हैं कि स्फोट से अर्थ की प्रतीति होती है । दूसरे सम्प्रदाय के लोग कहते हैं कि वाक्य से ही अर्थ का बोध होता है। तो फिर इस प्रसङ्ग में क्या होना उचित है ? ( पू० ) स्फोट से हो अर्थ की प्रतीति उचित है। क्योंकि पदों का समूह ही वाक्य है । एवं वर्णों का समूह ही पद है, इस वस्तुस्थिति के अनुसार वाक्य के अर्थबोध का होना सम्भव नहीं है । (विशदार्थ यह है कि वाक्य के ) हर एक वर्ण अर्थविषयक बोध के उत्पादक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा मानने पर उनमें से किसी एक ही वर्ण से अर्थ विषयक बोध का सम्पादक हो जाएगा फिर अवशिष्ट वर्णों का प्रयोग व्यर्थ हो जाएगा। वर्णों का एक समुदाय होना सम्भव ही नहीं है, क्योंकि अन्तिम वर्ण के