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प्रकरणम् }
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली नवयवमेकं विस्पष्टमर्थतत्त्वमनुभूयते । यदि हि वर्णा एव पदम् ? न तदेकबुद्धि - नियमिति अनालम्बना बुद्धिः पर्यवस्यति । 'शब्दादर्थं प्रतिपद्यामहे' इति च व्यपदेशो न घटते । तस्माद् वर्णव्यतिरिक्तः कोऽपि सम्भवत्येको यस्मादर्थः स्फुटीभवतीति ।
___ एवं प्राप्तेऽभिधीयते। गुणरत्नाभरणः कायस्थकुलतिलकः पाण्डुदास इत्यादिषु पदेषुच्चार्यमाणेषु क्रमभाविनो वर्णाः परं प्रतीयन्ते न त्वन्ते वर्णव्यतिरिक्तस्य कस्यचिदर्थस्य संवेदनमस्ति । यदि हि तस्य पूर्व वर्णात्मकतया संविदितस्यान्ते स्वरूपसंवेदनम्, पूर्वज्ञानस्य मिथ्यात्वमवसीयते रजतज्ञानस्येव शुक्तिकासंवित्तौ। न चैवं प्रतिपत्तिरस्ति 'नायं वर्णः, किं तु स्फोटः' इति । या चेयमेकार्थावमशिनी बुद्धिः, सापि नार्थान्तरमवभासयति, किन्तु वन
एक सम्पूर्ण और अत्यन्त स्पष्ट अर्थ तत्त्त का बोध होता है। यदि वर्गों का समुदाय ही पद हो (वर्गों का कोई एक स्फोठ न हो) तो फिर पद में एकत्व की प्रतीति न हो सकेगी, अत: 'एक पदम्' इत्यादि बुद्धियाँ निदिषय के हो जाएंगी। एवं 'शब्दात अर्थ प्रतिपद्यामहे' (एक अखण्ड शब्द से अर्थ को हम समझते हैं, यह व्यवहार न हो सकेगा (किन्तु बहुत से शादों से हम अर्थ को समझते हैं' इस प्रकार का व्यवहार होगा)। अतः वर्णों से भिन्न कोई एक वस्तु है, जिससे अर्थ 'प्रस्फुटित' होता है (उसी को अन्वर्थसंज्ञा 'स्फोट है)।
इन सब युक्तियों से स्फोट की सत्ता की सम्भावना उपस्थित होने पर सिद्धान्तियों का कहना है कि 'गुण रत्नाभरणः कायस्थकुलतिलकः पाण्डुदासः' (अर्थात् पाण्डुदास कायस्थ कुल के तिलक रूप हैं एवं गुण रूपी रत्न ही उनके भूषण हैं) इन सब वाक्यों के उच्चारण करने पर क्रमशः उत्पन्न होनेवाले वर्षों की ही प्रतीति होती है, किन्तु उच्चारण के अन्त में इन वर्षों से भिन्न किसी (स्फोट रूप) अर्थ का भान नहीं होता है। यदि ऐसा कहें कि (प्र०) प्रथमतः वर्ण का जो भान होता है, वह वस्तुतः स्फोट का ही वर्ण रूप से भान होता है और अन्त में स्फोट का स्फोटत्व रूप से भान होता है । (उ.) तो फिर जैसे कि शुक्तिका में रजत ज्ञान को मिथ्या मानना पड़ता है, वैसे ही स्फोट में वर्णत्व विषयक प्रथम ज्ञान को मिथ्या ही मानना पड़ेगा। (किन्तु आगे) यह बाधज्ञान भी नहीं होता कि 'ज्ञात होनेवाला यह वर्ण नहीं है, किन्तु स्फोट है' । वर्गों के समुदाय में जो एकत्व की प्रतीति होती है, उस प्रतीति का भी विषय उन वर्गों के समुदाय से भिन्न कुछ भी नहीं है, जैसे कि 'यह वन है' इस प्रतीति का विषय वृक्षसमुदाय से भिन्न स्वतन्त्रवन नाम की कोई व तु नहीं है। 'शब्दादथं प्रतिपद्यामहे' यह पञ्चमी एकवचन से युक्त वाक्य का प्रयोग भी उन वर्गों के समुदाय को ही एक वस्तु मान कर किया जाता है ।
प्रत्यक्ष के द्वारा जिसका सर्वथा ज्ञान होना ही असम्भव है उस (स्फोट ) का अन्य प्रमाणों के द्वारा निरूपण सम्भव नहीं है, क्योंकि उसके ज्ञान का कोई दूसरा उपाय
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