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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रज्वलनात्मको द्वेषः । यस्मिन् सति प्रज्वलितमिवात्मानं मन्यते स द्वेषः। स चात्ममनसोः संयोगाद् दुःखापेक्षात् स्मृत्य पेक्षाद् वोत्पद्यते । यत्नस्मृतिधर्माधर्मस्मृतिहेतुः । क्रोधो द्रोहो मन्युरक्षमाऽमर्ष इति द्वेषभेदाः ॥
द्वेष प्रज्वलन रूप है। ( अर्थात् ) जिसके रहते हुए प्राणी अपने को जलता हुआ सा अनुभव करे वही द्वेष' है। दुःख या स्मृति से सापेक्ष आत्मा और मन के संयोग से यह उत्पन्न होता है। प्रयत्न, स्मृति, धर्म और अधर्म का यह कारण है। क्रोध, द्रोह, मन्यु, अक्षमा और अमर्ष ये ( पाँच ) द्वेष के प्रभेद हैं।
न्यायकन्दली
प्रज्वलनात्मको द्वेष: । एतद् विवृणोति--यस्मिन् सतीत्यादिना । तद् व्यक्तम् । स चात्ममनसोः संयोगाद् दुःखापेक्षात् स्मृत्यपेक्षाद् वोत्पद्यते । अतीते दुःखहेतौ तज्जदुःखस्मृतिजो द्वेषः । प्रयत्नधर्माधर्मस्मृतिहेतुः । एनमहं हन्मीति प्रयत्नो द्वषात्, वेदार्थविप्लवकारिषु द्वेषाद् धर्मः, तदर्थपरिपालनपरेषु द्वषादधर्मः। स्मृतिरपि द्वेषादुपजायते, यो यं द्वेष्टि स तं सततं स्मरति । क्रोधो द्रोहो मन्युरक्षमाऽमर्ष इति द्वेषभेदाः। शरोरेन्द्रियादिविकारहेतुः क्षणमात्रभावी द्वषः क्रोधः । अलक्षितविकारश्चिरानुबद्धापकारावसानो द्वषो द्रोहः ।
जाने की इच्छा ही 'जिगमिषा' है। क्रियाओं की इस विभिन्नता से ही ये इच्छायें विभिन्न होती हैं।
'प्रज्वलनात्मको द्वेषः' इस लक्षण वाक्य की ही व्याख्या 'यस्मिन् सति' इत्यादि से किया गया है। 'स चात्ममनसोःसंयोगाद् दुःखापेक्षात् स्मृत्यपेक्षाद्वा उत्पद्यते' जहाँ दुःख के कारणों का नाश हो गया रहता है ऐसे स्थलों में उन कारणों से उत्पन्न दुःख की स्मृति से ही उन कारणों में द्वेष उत्पन्न होता है। 'प्रयत्नधर्माधर्मस्मृतिहेतुः' 'मैं इसे मारता हूँ इस प्रकार का प्रयत्न द्वेष से उत्पन्न होता है। वेदों से प्रतिपादित अर्थों को विपरीत दिशा में ले जानेवाले के ऊपर किये गये द्वेष से धर्म उत्पन्न होता है । वेदों को आज्ञा पालने वाले के ऊपर द्वेष करने से अधर्म उत्पन्न होता है । द्वेष से स्मृति भी उत्पन्न होती है, क्योंकि जिस के ऊपर जिसे द्वेष रहता है, उसे उसका सदा स्मरण होता रहता है । "क्रोधो द्रोहो मन्युरक्षमामर्ष इति द्वेषभेदाः' एक क्षण मात्र रहनेवाले 'द्वेष' का नाम ही 'क्रोध' है, जिससे शरीर एवं इन्द्रियादि अपने स्वरूप से च्युत दोख पड़ते हैं। जिससे शरीरादि में विकार परिलक्षित न हो, किन्तु जिसका बहुत दिनों के बाद अपकार में पर्यवसान हो, उस द्वेष को ही 'द्रोह' कहते हैं। 'मन्यु' उस 'द्वेष'
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