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प्रकरणम् ]
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भावानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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६३६
न च
जीवनपूर्वक इति । सुप्तस्य प्राणापानक्रिया प्रयत्नकार्या क्रियात्वात् । तदानीमिच्छाद्वेषौ प्रयत्नहेतू सम्भवतः, तस्माज्जीवनपूर्वक एव प्रयत्नः प्राणापानप्रेरको गम्यते । न केवलं जीवनपूर्वक एव प्रयत्नः प्राणापानप्रेरकः, किन्तु प्रबोधकालेऽन्तःकरणस्येन्द्रियान्तरप्राप्तिहेतुश्च । विषयोपलम्भानुमि तान्तः करणेन्द्रिसंयोगः प्रयत्नपूर्वकान्तःकरणक्रियाजन्यः, अन्तःकरणेन्द्रियसंयोगत्वात्, जागरान्तः करणेन्द्रियसंयोगवदिति प्रयत्नपूर्वकतासिद्धिः । अस्य जीवनपूर्वकस्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्माधर्मापेक्षादुत्पत्तिः, धर्माधर्मापेक्ष आत्ममनसोः संयोगो जीवनम् तस्मादस्योत्पत्तिरित्यर्थः ।
इतरस्तु इच्छाद्वेषपूर्वकश्च हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थस्य व्यायामस्य व्यापारस्य हेतुः शरीर विधारकश्च । गुरुत्वे सत्यपततः शरीरस्येच्छापूर्वकः प्रयत्नो विधारकः । स चात्ममनसोः संयोगादिच्छाद्वेषापेक्षादुत्पद्यते । हितसाधनोपादानेषु प्रयत्न इच्छापूर्वकः, दुःखसाधनपरित्यागे प्रयत्नो द्वेषपूर्वकः ।
हुए पुरुष की प्राणक्रिया और अपान क्रिया भी यतः क्रिया हैं, अतः वे भी प्रयत्न से ही उत्पन्न होती हैं । सोते समय की उन क्रियाओं की उत्पत्ति इच्छा और द्वेष से नहीं हो सकती, अतः यह सिद्ध होता है कि जीवनपूर्वक यत्न हो उन क्रियाओं का कारण है । जीवनपूर्वक प्रयत्न से केवल उक्त प्राणापानादि को प्रेरणा देनेवाली क्रियायें ही नहीं होती हैं, किन्तु उससे सोकर उठते समय मन का और इन्द्रिय का संयोग भी उत्पन्न होता है । विषय की उपलब्धि से अन्तःकरण का अन्य इन्द्रियों के साथ संयोग का अनुमान होता है । यह अन्तःकरण एवं अन्य इन्द्रियों का अनुमित संयोग भी जाग्नत अवस्था के अन्तःकरण एवं इन्द्रियसंयोग की तरह अन्तःकरण और इन्द्रिय का संयोग ही है । अतः इसकी उत्पत्ति भी प्रयत्न से उत्पन्न अन्तःकरण की क्रिया से ही होती है । अतः प्रबोधकालिक अन्तःकरण और इन्द्रियों के प्रबोधकालिक संयोग का भी प्रयत्न से उत्पन्न होना सिद्ध होता है । 'अस्य जीवनपूर्वकस्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्माधर्मापेक्षादुत्पत्तिः अर्थात् धर्म और अधर्म से उत्पन्न आत्मा और मन का संयोग ही जीवन है । इस जीवन से ही उक्त प्रयत्न की उत्पत्ति होती है ।
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'इतरस्तु' अर्थात् ( जीवनयोनि यत्न से भिन्न ) इच्छा और द्वेष उत्पन्न प्रयत्न 'हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थस्य व्यापारस्य हेतुः शरीरविधारकश्च' । शरीर में ( पतन के कारण ) गुरुत्व के रहने पर भी जो शरीर का पतन नहीं होता है उसमें इच्छा जनित प्रयत्न ही कारण है, ( इस प्रकार इच्छापूर्वक प्रयत्न विधारक है ) । ' स चात्ममनसोः संयोगादिच्छ द्वेषापेक्षा दुत्पद्यते' इनमें हित को साधन करनेवाली वस्तुओं के ग्रहण का इच्छा-जनित प्रयत्न कारण है, एवं दुःख के कारणों को हटाने में द्वेष से उत्पन्न प्रयत्न कारण है ।