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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
अपरे तु तस्मादिति त्रैरूप्यमेव परामृशन्ति 'यस्माद् यत् कृतकं तदनित्यं दृष्टम्, यस्मात् कृतकः शब्दः, यस्माच्च प्रतिपक्षबाधयोरसम्भवस्तस्मात् कृतकत्वादनित्यः शब्दः' इति ।
उपसंहरति-तस्मादिति । यस्मात् पञ्चस्वेवावयवेषु समग्रस्य साधनसामर्थ्यस्य प्रतीतौ साध्यप्रतीतिः पर्यवस्यति, नापरं किञ्चिदपेक्षते, तस्मात् पञ्चावयवेनैवान्यूनाधिकेन वाक्येन स्वनिश्चितस्यार्थस्य प्रतिपादनं क्रियत इति कृत्वा एतत्पञ्चावयवं वाक्यं परार्थानुमानमिति सिद्धं व्यवस्थितम् ।
ये तु प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिच्छन्तो नानुमानं प्रमाणमिति वदन्ति, त इदं प्रष्टव्याः, किमेकमेव प्रत्यक्षं स्वलक्षणं प्रमाणं यत्स्वरूपं प्रतीयते ? किं वा सर्वमेव ? न तावदेकमेव प्रमाणम्, अपरस्य तत्तुल्यसामग्रीकस्याप्रामाण्यका.
दूसरे सम्प्रदाय के लोग निगमन वाक्य के तस्मात्' इस ( सर्वनाम पद ) से हेतु को व्याप्तिपक्षधर्मता और अबाधितत्व असत्प्रतिपक्षितत्व इन तीनों रूपों का ही ग्रहण करते है, तदनुसार 'तस्मादनित्यः शब्द.' इस निगमन वाक्य का अर्थ इस प्रकार करते हैं कि 'यस्मात्' अर्थात् जिस लिए कि जितनी भी कृति से उत्पन्न वस्तुयें हैं, वे सभी अनित्य ही देखो जाती हैं, एवं 'यस्मात्' अर्थात् यतः शब्द भी कृति जन्य वस्तु है, एवं 'यस्मात् अर्थात् उक्त स्थल में बाध और सत्प्रतिपक्ष को सम्भावना नहीं है 'तस्मात्' अर्थात् कृति जन्य होने से शब्द भी अनित्य है।
___ 'तस्मात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा भाष्यकार इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं। (इस उपसंहार वाक्य का अभिप्राय यह है कि ) 'यस्मात्' अर्थात् जिस कारण कथित पाँच अवयववाक्यों से ही हेतु के सभी सामर्थ्यो की प्रतीति होती है, और उसके बाद ही साध्य की अनुमिति रूप प्रतीति उपपन्न हो जाती है. और किसी की अपेक्षा उसे नहीं रह जाती, अतः 'पञ्चावयवेनैव' अर्थात् न उन पाँच अवयव वाक्यों से अधिक वाक्य की अपेक्षा रहती है, और न उनसे एक की भी कमी से काम ही चलता है, फलतः उन्हीं पञ्चावयव वाक्यों से वक्ता अपने पूर्व निश्चित अर्थ का प्रतिपादन करता है, इस रीति से यह 'सिद्ध' हुआ अर्थात् व्यवस्थित हुआ कि ये पांच अवयव वाक्य ही 'परार्थानुमान' हैं।
जो सम्प्रदाय एक मात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने के अभिप्राय से कहते हैं कि 'अनुमान प्रमाण नही है' उनसे पूछना चाहिए कि 'केवल स्ववृत्ति एक वही प्रत्यक्ष व्यक्ति प्रमाण है ? जिससे कि उसके विषय के स्वरूप का बोध होता है, ( अर्थात् वर्तमान विषय को ग्रहण करनेवाला स्वगत ज्ञान ही प्रत्यक्ष है ) अथवा जितने भी (वर्तमान, भूत और भविष्य ) विषयों के ज्ञान होते हैं, वे सभी प्रमाण हैं ? ऐसा कहना तो सम्भव नहीं है कि एक ( वर्तमान विषय का ग्राहक) ही प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष है, क्योंकि समान कारणों से उत्पन्न ज्ञानों में से एक को ही प्रमाण मानकर और
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