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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम
६३३
प्रशस्तपादभाष्यम् उपघातलक्षणं दुःखम् । विषाद्यनभिप्रेतविषयसानिध्ये सत्यनिष्टोपलब्धीन्द्रियार्थसन्निकर्षादधर्माद्यपेक्षादात्ममनसोः संयोगाद् यदमर्षोपघातदैन्यनिमित्तमुत्पद्यते तद् दुःखम् । अतीतेषु सर्पव्याघ्रचौरादिषु स्मृतिजम् । अनागतेषु सङ्कल्पजमिति ।
उपघातस्वभाव अर्थात् प्रतिकूलवेदनीय ही दुःख है। वह विष प्रभृति अनभिप्रेत विषयों के सामीप्य, उनके साथ इन्द्रियों का संयोग, एवं अधर्म सहकृत आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होता है। वह असहिष्णुता, दुःख का अनुभव एवं दीनता का कारण है । अतीत सर्प, व्याघ्र एवं चोर इत्यादि से जो दुःख उत्पन्न होता है, उसका कारण उनकी स्मृतियाँ हैं। एवं भविष्य में आनेवाले विषयों से जो दुःख उत्पन्न होता है, उसका कारण उन ( अनभिप्रेत ) विषयों का सङ्कल्प है।
न्यायकन्दली तीति सङ्कल्पाज्जायते । यत्तु विदुषामात्मज्ञानवतामसत्सु विषयानुस्मरणसङ्कल्पेध्वसति विषयेऽसति चानुस्मरणे असति च सङ्कल्पे चाँविर्भवति तद् विद्याशमसन्तोषधर्म विशेषनिमित्तमिति । विद्या आत्मज्ञानम्, शमो जितेन्द्रियत्वम्, सन्तोषो देहस्थितिहेतुमात्रातिरिक्तानभिकाङ्कित्वम्, धर्मविशेष: प्रकृष्टो धर्मो निवर्तकलक्षणः, एतच्चतुष्टयनिमित्तम् ।
ये तु दुःखाभावमेव सुखमाहुस्तेषामानन्दात्मनानुभवविरोधः, हितमा. प्स्यामि, अहितं हास्यामीति प्रवृत्ति विध्यानुपपत्तिश्च । '
सुखप्रत्यनीकतया तदनन्तरं दुःखं व्याचष्टे-उपधातलक्षणं दुःखम् । अनुभूत के अतीतसाधनों में सुख की स्मृति से अनुराग उत्पन्न होता है । 'यह मुझे मिलेगा' इस आकार के संकल्प से सुख के भविष्यसाधनों में अनुराग उत्पन्न होता है। विदुषाम्' अर्थात् आत्मज्ञानी विद्वानों में 'असद्विषयानुस्मरण संकल्पेषु' अर्थात् विषयों के न रहने पर, अनुस्मरण के न रहने पर, एव संकल्प के न रहने पर भी जो दिव्य सुख का आविर्भाव होता है वह 'विद्याशमसन्तोषधर्म विशेषनिमित्तम्' अर्थात् विद्या, शम, सन्तोष, और प्रकृष्ट धर्म ये सब उसके कारण हैं । 'विद्या' है तत्त्वज्ञान, शम' है इन्द्रियों का जय करना, जितने धन से शरीरयात्रा चले उससे अधिक धन की आकाङ्क्षा न करना ही 'सन्तोष है। 'धर्मविशेष' शब्द से निवृत्ति रूप प्रकृष्टधर्म अभीष्ट है। इन चारों कारणों से आत्मज्ञानियों में उक्त सुख की उत्पत्ति होती है।
जो सम्प्रदाय दुःखाभाव को ही सुख मानते हैं उनके मत में इन दोषों की मापत्ति होगी । एक तो आनन्द का सभी जनों को जो अनुभव होता है, वह विरुद्ध होगा। एवं 'मैं हित को प्राप्त करूँ एवं 'अहित को छोड़” ये दो प्रकार की जो प्रवृत्तियाँ होती हैं, वे अनुपपन्न हो जाएंगी।
दुःख सुख का विरोधी है, अतः सुख के निरूपण के बाद 'उपघातलक्षणं दुःखम्'
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