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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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प्रयत्नपूर्वक मञ्जन -
सिद्धदर्शनं न ज्ञानान्तरम्, कस्मात् ? पादलेपखड्गगुलिकादिसिद्धानां दृश्यद्रष्टृणां कृष्टेष्वर्थेषु यद् दर्शनं तत् प्रत्यक्षमेव । अथ दिव्यान्तरिक्ष भौमानां प्राणिनां
सूक्ष्मव्यवहितविप्र
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(सिद्धजनों के अस्मदादि से विलक्षण ज्ञान रूप ) 'सिद्धदर्शन' नाम का कोई ( प्रत्यक्ष और अनुमिति से) भिन्न ज्ञान नहीं है, क्योंकि यत्नपूर्वक ( विशेष प्रकार के ) स्नान, पैर में विशेष प्रकार के लेप, खड्ग गुलिका ( आदि पद से मण्डूकवशाञ्जन ) से ( विशेषदर्शन का सामर्थ्य रूप ) सिद्धि से युक्त पुरुषों को सूक्ष्म, व्यवहित एवं अत्यन्त दूर की वस्तुओं का जो ( अस्मदादिविलक्षण ) ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष ही है । दिव्यलोक, न्यायकन्दली
तस्योत्पत्तिरनुपपन्ना कारणाभावादित्यतु ( प ) योगे सति इदमुक्तम् - - धर्मविशेषादिति । विशिष्यते इति विशेषः, धर्म एव विशेषो धर्मविशेषः, विद्यातपः समाधिजः प्रकृष्टो धर्मस्तस्मात् प्रतिभोदयः । तत्तु प्रस्तारेण बाहुल्येन देवर्षीणां भवति, कदाचिदेव लौकिकानामपि । यथा कन्यका ब्रवीति -- श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयतीति । न चेदं संशयः, उभयकोटिसंस्पर्शाभावात् । न च विपर्ययः, संवादादतः प्रमाणमेव ।
सिद्धदर्शनमपि विद्यान्तरमिति केचिदिच्छन्ति तन्निवृत्त्यर्थमाह - सिद्धदर्शनं न ज्ञानान्तरम् । एतदेवोपपादयति — कस्मादित्यादिना । प्रयत्नपूर्वकहते हैं । इस प्रसङ्ग कोई आक्षेप कर सकता है कि ( यदि इन्द्रिय या लिङ्ग उसका कारण नहीं है तो फिर ) कारण के न रहने से उसकी आपत्ति ही सम्भव नहीं है ? इसी आक्षेप का समाधान 'धर्मविशेषात्' इस वाक्य के द्वारा दिया गया है । 'विशिष्यते इति विशेषः, धर्म एव विशेषः धर्मविशेष:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार विद्या, तपस्या और समाधि से उत्पन्न प्रकृष्टधर्म ही उक्त 'धर्मविशेष' शब्द का अर्थ है । इस प्रकृष्टधर्म से ही प्रातिभ ज्ञान की उत्पत्ति होती है । तत्तु प्रस्तारेण' अर्थात् यह प्रातिभ ज्ञान 'प्रस्तार' से अर्थात् अधिकतर देवर्षियों को ही होता है । लौकिकव्यक्तियों (साधारण मनुष्यों) को कदाचित् ही होता है । जैसे कि कभी कोई बालिका कहती है कि 'मेरा मन कहता है, कल मेरे भैया आयेंगे' यह ज्ञान संशय रूप नहीं है, क्योंकि इसमें उभयकोटि का सम्बन्ध नहीं है । यह विपर्यय भी नहीं है, क्योंकि इस ज्ञान के अनुसार काम देखा जाता है ।
किसी सम्प्रदाय के लोग 'सिद्धदर्शन' नाम का एक अलग उन लोगों के मत का खण्डन ही 'सिद्धदर्शनं न ज्ञानान्तरम्' किया गया है । 'कस्मात्' इत्यादि
प्रमाज्ञान मानते हैं, इत्यादि सन्दर्भ से सन्दर्भ के द्वारा इसी का विवरण देते हैं । 'प्रयत्न
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