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म्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे निर्णय
न्यायकन्दली
रणाभावात् । अथातीतमनागतं च पुरुषान्तरवति सर्वमेव प्रत्यक्षं स्वलक्षणं प्रमाणम् ? कथमिदं निश्चीयते ? प्रतीयमानप्रमाणव्यक्तिसजातीयत्वादिति चेत् ? अङ्गीकृतं स्वभावानुमानस्य प्रामाण्यम् ।
एवमनुमानप्रमाणत्वमपि विकल्प्य वाच्यम् । कश्च प्रत्यक्षं प्रमाणं प्रतिपाद्यते ? न तावत् स्वात्मैव, प्रतिपादकत्वात् । परश्चेत् ? स कि प्रतिपन्नः प्रतिपाद्यते ? विप्रतिपन्नो वा ? न प्रतिपन्नः, प्रतिपन्नस्य प्रतिपादनवैयर्थ्यात् । विप्रतिपन्नश्चेत् ? पुरुषान्तरगता विप्रतिपत्तिश्च न प्रत्यक्षेण गम्यते । वचनलिङ्गन्नानुमीयते चेत् ? सिद्धं कार्यानुमानस्य प्रामाण्यम् ।
(न) अनुमानं प्रमाणमिति केन प्रमाणेन साध्यते ? प्रत्यक्षं विधिविषयम्, न कस्यचित् प्रतिषेधे प्रभवति । अनुपलब्ध्या गम्यते चेत् ? तमुनुपलब्धिलिङ्गकमनुमानं स्यात् । तथा चोक्तं सौगते.सभी को अप्रमाण मानने का कोई हेतु नहीं है । यदि भूत और भविष्य विषयक प्रत्यक्ष अथवा दूसरे पुरुष में रहनेवाले प्रत्यक्ष ये सभी प्रमाण हैं, तो फिर यह पूछना है कि यह कैसे निश्चय करते हैं कि 'वे सब भी प्रमाण हैं' यदि यह कहें कि (प्र.) अपने द्वारा ज्ञात प्रत्यक्षप्रमाण का सादृश्य उन ज्ञानों में देखा जाता है, अत: उन्हें भी प्रत्यक्ष प्रमाण समझते हैं' ( उ०) तो फिर आपने भी स्वभावलिङ्गक अनुमान को मान ही लेते हैं।
इसी प्रकार अनुमान प्रमाण के प्रसङ्ग में भी इस प्रकार के विकल्पों को उपस्थित कर पूछना चाहिए कि ( जिन अनुमानों को आप प्रत्यक्ष मानते हैं ) उन प्रत्यक्षों के द्वारा किसे समझाना है ? प्रतिपादन करनेवाला अपने को तो समझा नहीं सकता, क्योंकि वह स्वयं ही प्रतिपादक है। (प्रतिपाद्य और प्रतिपादक कभी एक नहीं हो सकता) यदि दूसरे को समझाना है तो इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि वह समझनेवाला प्रमाज्ञान से युक्त है ? अथवा भ्रमात्मकज्ञान से युक्त है ? प्रमाज्ञान से युक्त पुरुष को समझाना ही व्यर्थ है, क्योंकि वह स्वयं प्रतिपाद्य विषय को अच्छी तरह जानता है। अतः उसे समझाने का प्रयास ही व्यर्थ है | यदि उसे भ्रमात्मक ज्ञान से युक्त मानते हैं ( तो फिर इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि उस पुरुष में रहनेवाले भ्रम को आपने कैसे जाना? क्योंकि दूसरे पुरुष में रहनेवाले भ्रम का तो प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है । मदि उस पुरुष के वचन से उसके भ्रम को समझते हैं ? तो फिर कार्य हेतुक अनुमान का प्रामाण्य ही सिद्ध हो जाता है ।
___'अनुमान प्रमाण नहीं है यह आपकिम प्रमाण से सिद्ध करना चाहते हैं ? प्रत्यक्ष प्रमाण तो केवल भाव विषयक है, उससे किसी का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। यदि अनुपलब्धि के द्वारा अनुमान के प्रामाण्य का प्रतिषेध करते हैं, तो फिर अनुपलब्धि लिङ्गक अनुमान को मानना ही पड़ेगा । जैसा कि 'प्रमाणेतर' इत्यादि वात्तिक के द्वारा बौद्धों ने कहा है
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