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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् व्यस्तानां वा तदर्थवाचकत्वमस्ति, गम्यमानार्थत्वादिति चेन्न, अतिमिलित होकर या स्वतन्त्र रूप से भी प्रत्याम्नाय के द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ का प्रतिपादन नहीं कर सकते ( अतः उन चारों के रहते हुए भी प्रत्याम्नाय का असाधारण प्रयोजन है। सुतराम् इसके वैयर्थ्य की आशंका अयुक्त है)।
(प्र०) ( यदि प्रतिज्ञावाक्य को फिर से दुहराना ही प्रत्याम्नाय है तो फिर ) ज्ञात अर्थ के ही ज्ञापक होने के कारण ( प्रत्याम्नाय की कोई आवश्यकता नहीं है ) ? ( उ०) ऐसी बात नहीं है, यदि ऐसी बात हो तो
न्यायकन्दलो निश्चीयते किं प्रत्याम्नायेन ? इत्यत आह---नह्येतस्मिन्नसतीति । प्रतिज्ञादयोऽवयवाः प्रत्येक स्वार्थमात्रेण पर्यवसायिनोऽसति प्रत्याम्नाये नैकमर्थं प्रत्याययितुमीशते, स्वतन्त्रत्वात् । सति त्वेतस्मिन्नाकाङ्क्षोपगृहीताः अङ्गाङ्गिभावमुपगच्छन्तः शक्नुवन्तीति युक्तः प्रत्याम्नायः ।
पुनश्चोदयति गम्यमानार्थत्वादिति। अयमभिप्रायः स्वार्थानुमाने यैव प्रतिपत्तिसामग्री, सैव परार्थानुमानेऽपि । इयांस्तु विशेषः, स्वप्रतीतावियं स्वयमनुसन्धीयते, परप्रतीतौ च परेण बोध्यते । स्वयं च लिङ्गसामर्थ्यादर्थोऽवगम्यते, परस्यापि तदेव गमकम् । वाक्यं तु लिङ्गोपक्षेपमात्रे चरितार्थम् । प्रतिपादितं च कोई प्रयोजन नहीं है इसी आक्षेप का समाधान 'न तु तस्मिन्नसति' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा किया गया है। अभिप्राय यह है कि प्रतिज्ञादि चारों अवयव अलग अलग स्वतन्त्र रूप से केवल अपने अपने अर्थों का ही प्रतिपादन कर सकते हैं, स्वतन्त्र होने के कारण प्रत्याम्नाय के बिना किसी एक विशिष्ट अर्थ को उनमें से कोई भी एक अवयव नहीं समझा सकता। प्रत्याम्नाय वाक्य के प्रयोग से ही प्रतिज्ञादि अवयव परस्पराकाङ्क्षा के द्वारा एक दूसरे से अङ्गाङ्गिभाव को प्राप्त कर एक विशिष्ट अर्थ विषयक बोध का सम्पादन कर सकते हैं, अतः प्रत्याम्नाय का प्रयोग आवश्यक है।
'गम्यमानार्थत्वात्' इस वाक्य के द्वारा फिर से आक्षेप करते हैं। आक्षेप करनेवाले का अभिप्राय है कि कारणों के जिस समुदाय से स्वार्थानुमान की उत्पत्ति होती है, परार्थानुमान भी उसी कारण समुदाय से उत्पन्न होता है। अन्तर इतना ही है कि स्वार्थानुमानवाले पुरुष को स्वयं ही उस कारण समूह का अनुसन्धान करना पड़ता है, और परार्थानुमान स्थल में उस समूह का अनुसन्धान दूसरे के द्वारा कराया जाता है । जिस प्रकार स्वार्थानुमान स्थल में हेतु के पक्षसत्त्वादि सामर्यों के द्वारा ‘अर्थावगम' अर्थात् अनुमिति होती है, उसी प्रकार परार्थानुमान स्थल में भी हेतु के उन सामर्यों से ही अनुमिति होती है । ( अवयव ) वाक्यों का तो अनुमिति में इतना ही उपयोग है कि वे ( उक्त सामर्थ्य से युक्त) हेतु को उपस्थित कर देवें। अन्वय और व्यतिरेक
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